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________________ अत्यन्ताभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २२७ वादिनामभावप्रतिपत्तिरयुक्तिः । अतो न भावनियमप्रतिपत्तिः कस्यचित्क्वचित्कथञ्चिदसत्त्वासिद्धेः स्वस्वभावव्यवस्थित्ययोगात् । रखने वाली डंडियों को संभालने के लिये आजू-बाजू में बांस के दो बड़े डंडे रहते हैं, जिसके सहारे ही वेडंडियां बंधी रहती हैं, उसी प्रकार से सभी पदार्थ का ज्ञान भाव - अभावरूप दो दीर्घं डंडों से बंधा हुआ है। तात्पर्य यह निकला कि भाव और अभाव इन दोनोंरूप अवस्थाओं को माने बिना पदार्थों का निर्दोष ज्ञान असंभव है । जिस प्रकार से स्वस्वरूप आदि चतुष्टय से वस्तु है, यदि उसी प्रकार से पररूपादिक से भी स्वीकार कर लोगे तब तो संवेदनाद्वैत में भी भाव की तरह पर का अस्तित्व हो जाने से वह भेदरूप हो जावेगा एवं अद्वैतवादियों का अद्वैत सिद्ध नहीं हो सकेगा । अर्थात् अद्वैतवाद जैसे स्वस्वरूप से ब्रह्मरूप या विज्ञान रूप है, यदि वैसे ही पररूप- सांख्यमत, जैनमत से भी अस्तित्वरूप हो जावेगा, तब तो वह अद्वैत नहीं रहेगा द्वैतरूप ही हो जावेगा । अतः पररूप से अभाव मानना उचित ही है । तथैव पररूपादि के समान ही स्वरूप आदि से भी उसका अभाव मान लेने पर तो उसका स्वयं भी प्रकाशन होना अर्थात् यदि वस्तु पररूप से अभाव के समान स्वस्वरूप से भी अभावरूप है । पुनः उसका स्वभाव ही कुछ न रहने से वस्तु शून्यरूप हो जावेगी अतः पररूप से अभाव के समान स्वभाव से भी वस्तु में अभावधर्म नहीं मानना चाहिये। क्योंकि कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं है कि जो सर्वात्मक रूप से स्वरूप के समान हो पररूप से भी भाव अथवा अभाव को ग्रहण करने में समर्थ हो सके अर्थात् कोई भी समर्थ नहीं है । अन्यथा अनियम का प्रसंग आ जावेगा । अर्थात् यह घट ही है, इस प्रकार का नियम ही नहीं बन सकेगा। क्योंकि बौद्धों के यहाँ भाव ही प्रमाण का विषय है इस प्रकार से 'भावप्रमेय कांतवादियों' के यहाँ अभाव की प्रतिपत्ति आयुक्त ही है । अर्थात् नय, प्रमाण से रहित होने से युक्तियुक्त नहीं है । इसलिये भाव के नियम की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है । I किसी वस्तु का कहीं पर किसी प्रकार से असत्त्व - अभाव असिद्ध होने से तो स्वस्वभाव की भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी । यथा - 'पृथुबुध्नोदराकार' घट के स्वभाव में घट की व्यवस्था बनती है, वह सिद्ध नहीं हो सकेगी । भावार्थ - यहाँ आचार्य इस बात को अच्छी तरह से सिद्ध कर देना चाहते हैं कि सभी वस्तुयें अपने स्वद्रव्य क्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा से ही भावरूप हैं-सत्रूप हैं एवं परद्रव्यक्षेत्रकालभाव की अपेक्षा से अभावरूप - नास्तिरूप है । जीव जीवत्व चेतनत्व आदि से अस्तिरूप है, अचेतनत्व आदि से नास्तिरूप है । आम्रफल स्वद्रव्यादि चतुष्टय से अस्तिरूप है एवं जामुन, अनार आदि पर द्रव्यादि चतुष्टय से नास्तिरूप है । ये भाव अभाव-धर्म नसैनी - ऊपर चढ़ने की सीढ़ी के आजू-बाजू के दो डंडे हैं इन भाव- अभावरूप डंडों से ही छोटी-छोटी पैर रखने की इंडियाँ बंधी हुई हैं जिन पर पैर रखकर व्यक्ति छत पर चढ़ जाता है । उसी प्रकार से इन भाव अभावरूप डंडों से बंधी हुई सभी वस्तुओं के 1 स्याद्वादी । ( दि० प्र० ) 2 कस्यचिद् ज्ञानादेः क्वचिद् घटादो केनचित्प्रकारेण नास्तित्वं न सिद्धयति सर्वत्र सर्व सुलभम् । (दि० प्र०) 3 स्वरूपेणेव पररूपेणापि । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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