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अष्टसहस्री
[ कालत्रयापेक्षया जीवादिषु उत्पादव्ययध्रौव्यानां सिद्धि: ]
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तथा' च स्थितिरेव स्थास्यत्युत्पत्स्यते विनङ्क्ष्यति ' सामर्थ्यात्स्थितोत्पन्ना विष्टे | विनाश एव स्थास्यत्युत्पत्स्यते' विनङ्क्ष्यति स्थित ' उत्पन्नो विनष्ट' इति च गम्यते । उत्पत्तिरेवोत्पत्स्यते विनङ्क्ष्यति स्थास्यतीति' न" "कुतश्चिदुपरमति 2 | सोत्पन्ना विनष्टा स्थितेति गम्यते । स्थित्याद्याश्रयस्य वस्तुनोऽनाद्यनन्तत्वादनुपरमसिद्धेः स्थित्यादिपर्यायाणां कालत्रयापेक्षिणामनुपरमसिद्धिः, अन्यथा " तस्यातल्लक्षणत्वप्रसङ्गात्सत्त्वविरोधात् " । [ उत्पादव्ययध्रौव्यापेक्षया वस्तुनि एकाशीतिभेदान् साधयंति
एतेन जीवादि वस्तु तिष्ठति स्थितं स्थास्यति, विनश्यति विनष्टं विनङ्क्ष्यति, उत्पद्यते
[ कारिका ११
[ त्रिकाल की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय, धौव्य की सिद्धि ]
उसी प्रकार से स्थिति ही भावी काल में ठहरेगी, उत्पन्न होगी, नष्ट होगी। और सामर्थ्य से वह स्थिति ही भूतकाल में ठहरी थी, उत्पन्न हुई थी और नष्ट हुई थी, यह जाना जाता है ।
तथा विनाश ही ठहरेगा, उत्पन्न होगा और विनष्ट होगा और वही विनाश ही भूतकाल में ठहरा था, उत्पन्न हुआ था और नष्ट हुआ था, इस प्रकार से जाना जाता है ।
तथैव उत्पत्ति ही उत्पन्न होगी, नष्ट होगी और ठहरेगी इसलिये किसी भी प्रकार से वह उपरम को प्राप्त नहीं होगी । वही उत्पत्ति ही उत्पन्न हुई थी, नष्ट हुई थी और ठहरी थी, इस प्रकार से जाना जाता है । एवं स्थित्यादि की आश्रयभूत वस्तु में अनादि और अनंतपना सिद्ध होने से कालत्रय की अपेक्षा रखने वाली स्थिति, उत्पत्ति आदि पर्यायों का भी उपरम-विराम न होना सिद्ध ही है । अन्यथा यदि उपरम अभाव मान लोगे, तब तो उस वस्तु का तल्लक्षण ( उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त सत् लक्षण) न होने से अर्थात् अतल्लक्षण हो जाने से उस वस्तु के सत्त्व का विरोध हो जावेगा । पुनः उस वस्तु का त्रिलक्षण के बिना अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा ।
[ उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य की अपेक्षा से वस्तु में इक्यासी भेद सिद्ध हो जाते हैं ] इस कथन से जीवादि वस्तु ठहरती हैं, ठहरी थीं और ठहरेगीं । नष्ट होती हैं, नष्ट हुई थीं, नष्ट होगी । उत्पन्न होती हैं, उत्पन्न हुई थीं, उत्पन्न होंगी । इस प्रकार से श्री आचार्यप्रवर भट्टा
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1 कालत्रयापेक्षया त्रिलक्षणोपदर्शने च सति । तथा च जीवाद्यर्थस्यान्वितेन रूपेण कालत्रयव्यापित्वे सति द्रव्यपर्यायात्मकत्वे वा सति । ननु यदैव स्थित्यादयस्तदैव नान्यदिति कथमुत्पादव्ययध्रौव्यमुक्तं सकलस्य सातत्येन सेत्स्यतीत्याशंक्य प्रत्येकं कालत्रयव्यापित्वमाह । (दि० प्र० ) 2 अभेदद्रव्यमेव । ( दि० प्र० ) 3 उत्तरकाले स्थित्युत्पत्तिविनाशाः । ( दि० प्र०) 4 पूर्वकाले । ( दि० प्र० ) 5 स्थिति: । ( दि० प्र० ) 6 उत्पत्स्यति इति पा० । ( ब्या० प्र० ) 7 स्थित्युत्पत्तिविनाशसामर्थ्यात् । ( व्या० प्र० ) 8 व्यनक्षत् । (ब्या० प्र० 9 सोत्पन्नेत्याद्यग्रेतनमत्र संबध्यते । (दि० प्र०) 10 हेतो: । ( दि० प्र० ) 11 पूर्वभागादुत्तरभागाद्वा | विश्रान्ति । (दि० प्र० ) 12 उपरतिः इति पा० । ( दि० प्र०) 13 स्थिते रुत्पत्तेर्विपत्तेर्वा । ( दि० प्र०) 14 उत्पादित्रय । ( दि० प्र० )
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