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________________ इतरेतराभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २०७ उत्पन्नमुत्पत्स्यते चेति प्रदर्शितं, कथञ्चित्तदभिन्नस्थित्यादीनामन्यथा' स्थास्यत्यादिव्यवस्थानुपपत्तेः । तथा चैतेषां नवानामपि विकल्पानां प्रत्येक नवविकल्पतोपपत्तेरेकाशीतिविकल्पं वस्तूह्य', [ धर्मिणोऽभिन्नेषु धर्मेष्वपि एकाशीतिभेदाः घटते ] तदभिन्नस्थित्यादिपर्यायाणामपि' तावद्धाविकल्पादनुपरमसिद्धेः । यथा “जीवपुद्गलधर्मा कलंक देव ने दिखलाया है, क्योंकि कथंचित् द्रव्यरूप से उससे अभिन्न स्थिति आदि में अन्यथा अन्य किसी प्रकार से यथास्थिति-भविष्य में ठहरने इत्यादि की व्यवस्था रह नहीं सकती है । अर्थात् जीवादि वस्तु में त्रिकाल में भी स्थिति, उत्पत्ति, व्ययरूप ध्रौव्यात्मक का अभाव करने पर 'स्थास्यति' आदि की व्यवस्था बन नहीं सकेगी। उसी प्रकार से इन नव भेदों में भी प्रत्येक के नव-नव विकल्प के होने से ८१ भेदरूप वस्तु है, ऐसा समझना चाहिये। भावार्थ-उन नव भेदों में पहले "तिष्ठति" इसमें स्वकीय–वर्तमान काल की अपेक्षा से 'तिष्ठति', 'उत्पद्यते', 'विनश्यति' अपने उत्तर काल की अपेक्षा से 'स्थास्यति', 'उत्पस्यते', 'विनङ्क्ष्यति' । और अपने पूर्वकाल की अपेक्षा से 'स्थितं उत्पन्नं विनष्टं ।' इस प्रकार से स्थिति में नव भेद कीजिये । तथैव 'स्थास्यति' में नव भेद कीजिये। वैसे ही ‘उत्पन्नम्', 'उत्पत्स्यते', 'उत्पद्यते' और 'नश्यति', 'नष्ट' और 'विनक्ष्यति' में ६-६ भेद करने से ८१ भेद हो जाते हैं । [ प्रत्येक धर्म में भी ८१ भेद घटित करना चाहिये ] जिस प्रकार से धर्मी में यह व्यवस्था है, वैसे ही प्रत्येक धर्मों की भी यही व्यवस्था है, ऐसा समझना चाहिये । उसी को कहते हैं कि उस वस्तु से अभिन्न स्थिति आदि पर्यायों में भी उतने ही भेद होने से उनके भी अनुपरम-समाप्त न होने की सिद्धि हो जाती है। अर्थात् कभी भी उन धर्मों का भी विराम–अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य से उनकी पर्यायें कथंचित् अभिन्न ही हैं। विशेषार्थ-"सद्व्यलक्षणं" सूत्र के अनुसार द्रव्य का लक्षण सत् है और सत् का लक्षण "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" सूत्र के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है। और प्रत्येक वस्तु सत्रूप है। पहले यह प्रश्न हो चुका है कि उत्पादादिमान् वस्तु से उत्पादादि पर्यायें भिन्न हैं या अभिन्न ? इस पर जैनाचार्य ने तो कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न सिद्ध कर दिया है । पुनः आचार्य ने वस्तु के इन उत्पादादि तीनों लक्षणों को भूत, भविष्यत्, वर्तमानकाल की अपेक्षा से नव भेदरूप करके प्रत्येक के भी नव-नव भेद कर दिये हैं, ऐसे इक्यासी भेद सिद्ध किये हैं । पुनः वस्तुरूप धर्मी के प्रत्येक धर्मों में भी ८१-८१ भेद घटित करने का विधान किया है ? क्योंकि धर्मी से सभी धर्म कथञ्चित् 1 जीवादिवस्तुनस्तिष्ठत्याद्यभावे सति । (दि० प्र०) 2 स्वाधर्माणां कथं स्थितिरित्याशंकायामाह। (दि० प्र०) 3 धर्माणाम् । (दि० प्र०) 4 भेदः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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