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इतरेतराभाव की सिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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स्तेन प्रत्येक विलक्षणाः, पर्यायार्पणात्परस्परं तद्वतश्च भिन्ना अपीष्यन्ते', तथा प्रतीतेधिकासंभवात् । ततो निरवद्यमिदं प्रतिक्षणं त्रिलक्षणं सर्वमिति । एतेन कालत्रयापेक्षयापि त्रिलक्षणमुपदर्शितं, तस्यान्वितेन रूपेण कालत्रयव्यापित्वादन्यथा त्रुट्यत्तैकान्ते सर्वथार्थक्रियाविरोधात् कूटस्थैकान्तवत् । ततो द्रव्यपर्यायात्मकं जीवादि वस्तु, 'क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियान्यथानुपपत्तेरिति प्रमाणोपपन्नम् ।
भिन्न स्थिति आदि में भी विलक्षण घटित है क्योंकि सर्वथा भिन्न कहो तभी सब दोष अवकाश पाते हैं जैसे कूटस्थ नित्यवादी सांख्य के यहाँ सर्वथा परिणमन का अभाव होने से यह व्यवस्था असंभव है उसी प्रकार से आप ट्यत् एकांतवादी हैं आपके यहाँ एक-एकक्षण में द्रव्य का अन्वय टूटकर निरन्वय विनाश-द्रव्य का सत्यानाश हो जाता है पुनः आपके यहाँ भी ये उत्पादादि असंभव हैं अतः दोनों के यहाँ अनेक दूषण आते हैं, हमारे यहाँ नहीं। मतलब इन उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को जैनाचार्यों ने पृथक् कुछ चीज नहीं माना है कि जिसका जीवादिवस्तु से संबंध होता है। जैनों के यहाँ तो उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक ही संपूर्ण वस्तुएँ हैं, किंतु इस कथन को न समझकर ही सांख्य एवं बौद्ध ने इन तीनों अवस्थाओं की दुर्दशा कर डाली है। सांख्य तो केवल ध्रौव्य ही मानता है उसके यहाँ उत्पाद, व्यय नाम से ही विरोध है वह आविर्भाव और तिरोभाव को मानकर संपूर्ण वस्तुओं को सदैव सत्-विद्यमानरूप ही मानता है। बीज से अंकुर का उत्पाद उसके यहाँ असंभव है। बीज में वृक्ष, मिट्टी में घड़ा, तंतु में वस्त्र सदा विद्यमान है केवल तिरोभूत है। कारणसामग्री को वह व्यंजकसामग्री कहता है और उस सामग्री से कार्य को प्रकट हुआ कहता है और बौद्ध ने तो सांख्य से बचे हुये उत्पाद-व्ययमात्र को ही ले लिया है । उसका कहना है कि ध्रौव्य नाम की कोई वस्तु नहीं है प्रतिक्षण वस्तु का उत्पाद और व्यय ही होता है । वस्तु का एक क्षण बाद निर्मल नाश हो जाता है और दूसरी वस्तु का उत्पाद हो जाता है। अब वह बौद्ध यह नहीं समझ सकता है कि नाश किसका हुआ और उत्पाद किसका होगा, जबकि कोई वस्तु ही स्थिर ध्रौव्यरूप नहीं है। ऐसे असत् का ही उत्पाद मानने से तो एक साथ सारा विश्व खचाखच भर जावेगा और नवीन-नवीन उत्पाद रुकेंगे नहीं; फिर तो एक लोक के समान अनंतानंत लोक भी बनाने पड़ेंगे। और असत का उत्पाद होते-होते तो आकाश से फूल, बिना मिट्टी के घड़े, बिना बीजों के खेती होती ही चली जावेगी, किंतु यह सब सोचना व्यर्थ ही है।
अतः उत्पाद, व्यय के साथ-साथ ही यदि बौद्ध वस्तू में ध्रौव्यत्व को भी मान लेवे तब तो सारी ही व्यवस्था बढ़िया बन जावेगी। इसलिये वस्तु को त्रयात्मक मानना ही उचित है न कि केवल ध्रौव्यरूप या केवल उत्पाद व्यय रूप । क्योंकि सांख्य और बौद्ध की मान्यता में अनेकों दोष आ जाते हैं। आगे तीन काक की अपेक्षा से भी वस्तु को त्रयात्मक ही सिद्ध करेंगे। 1 स्थित्यादयः । (ब्या० प्र०) 2 लक्षण्यप्रकारेण भेदप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 3 ता । (ब्या० प्र०) 4 अनवस्था नास्ति यतः । (ब्या० प्र०) 5 अन्यथा जीवाद्यर्थस्यान्वितरूपेण कालत्रयव्यापित्वाभावे क्षणिकैकान्ते सति सर्वथार्थक्रिया विरुद्धयते यथा नित्यैकान्ते । (दि० प्र०) 6 त्रुटयत्येकान्ते इति पा०। (दि० प्र०) 7 क्रमयोगपद्याभ्यामन्यथार्थक्रियानुपपत्तेरिति पा० । (दि० प्र०) 8 द्रव्यपर्यायात्मजीवादि द्रव्यम् । (दि० प्र०)
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