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________________ २०४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ ज्ञायते', त्रिलक्षणाज्जीवादिपदार्थादभिन्नानां स्थित्यादीनां त्रिलक्षणत्वसिद्धेः । एतेनैव तत - स्तेषां भेदोपगमेपि प्रत्येकं त्रिलक्षणत्वसिद्धिरुक्ता । न चैवमनवस्था, सर्वथा भेदपक्षे तत्प्रसक्तेः, स्याद्वादपक्षे तु तदसंभवात् । येन हि स्वभावेन त्रिलक्षणात्तत्त्वादभिन्नाः स्थित्यादय भावार्थ - यहाँ पर बौद्ध ने यह प्रश्न किया है कि आपके कथन से तो जीवादि वस्तु स्थिति उत्पत्ति विनाशमान् सिद्ध हो गई हैं और यह 'मतुप्' प्रत्यय तो भिन्न अर्थ में ही होता है जैसे "श्रीः अस्यास्ति इति श्रीमान् " श्री - लक्ष्मी जिसके पास हो वह श्रीमान् कहलाता है । पुनः आप जैन स्थिति उत्पत्ति विनाशमान जीव से उन स्थिति उत्पत्ति और विनाश तीनों अवस्थाओं को अभिन्न मानते हो या भिन्न ? क्योंकि यहाँ पर ये तीनों अवस्थायें और अवस्थावान्जीव ये दो चीजें हैं अतः अवस्थावान् जीव से ये तीनों अवस्थायें अभिन्न हैं या भिन्न ? यह प्रश्न होना स्वाभाविक है। यदि आप अभिन्न मान लेंगे तब तो स्थिति ही उत्पत्ति एवं विनाश हो जावेगी, विनाश हो स्थिति उत्पत्तिरूप बन जावेगा । तथा उत्पत्ति ही स्थितिविनाशरूप हो जावेगी । तात्पर्य है कि तीनों ही एकरूप होने से एकमेक हो जायेंगे क्योंकि एक दूसरे से भिन्न तो रहे नहीं पुनः त्रयात्मक व्यवस्था समाप्त हो जावेगी। यदि आप स्थित्यादि मान् जीव से इन तीनों अवस्थाओं को भिन्न मानेंगे तब तो इन तीनों में भो प्रत्येक में तीन-तीन लक्षण मानो पुनः उन तीनों में भी प्रत्येक में तीन-तीन की कल्पना करते चलो, तब तो एक जीव के स्थिति, उत्पत्ति, व्ययरूप शाखाओं से अनेकशाखाएं निकलती चली जावेंगी और आकाश को उलंघन करने वाला एक अनवस्थारूप वृक्ष खड़ा हो जावेगा । यदि शाखा प्रशाखारूप से प्रत्येक — स्थिति उत्पाद व्यय में स्थिति, उत्पाद, व्यय की परम्परा नहीं मानोगे तब सत् के लक्षण से शून्य होने से वे प्रत्येक स्थिति उत्पत्ति और व्यय खरगोश के सींग के समान अस्तित्व से रहित ही हो जायेंगे अतः भिन्न और अभिन्न इन दोनों पक्षों में ही अनेक दोष आ रहे हैं । इस प्रकार बौद्ध ने जैनों पर दोषारोपण कर दिया है । - जैनाचार्य कहते हैं कि भाई ! हम तो स्याद्वादी हैं कथंचित् स्थित्यादिमान् - अवस्थावान् जीव से उनकी इन उत्पत्ति, स्थिति और व्ययरूप तीनों ही अवस्थाओं को अभिन्न मानते हैं और अन्वयरूप एकजीवत्वद्रव्य की अपेक्षा से इन तीनों का जीव से अभेद स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि द्रव्य को छोड़कर ये अवस्थाएँ अन्यत्र असम्भव हैं । अतः हमारे यहाँ द्रव्य से स्थिति भिन्न तो रही नहीं । वही स्थिति ही उत्पन्न होती है, वही नष्ट होती है और वही स्थितिरूप है ऐसे ही द्रव्य से अभिन्न उत्पत्ति और व्यय की भी यही व्यवस्था है । त्रिलक्षणवाले जीवादिद्रव्य से अभिन्न स्थिति आदि में भी विलक्षण को घटाने से कोई बाधा नहीं है । हमारे यहाँ कथंचित्वा में एकमेक होने का संकर दोष नहीं आता है क्योंकि हम शीघ्र ही पर्यायार्थिकनय से भेद भी मान लेते हैं और जब भेद मान लेते हैं तब भी अनवस्था दोष नहीं आता है । स्थित्यादिमान् जीवादि से कथंचित् ही स्थिति, उत्पत्ति, व्यय भिन्न हैं पुनः उन भिन्न 1 विज्ञायते इति पा० । (दि० प्र०) 2 त्रिलक्षणाजी वाद्यर्थादभिन्नानां स्थित्यादीनां विलक्षणत्वव्यवस्थापनद्वारेण ततो जीवाद्यर्थात् तेषां स्थित्यादीनां भेदोस्तीत्यंगीकारेपि प्रत्येकं त्रिलक्षणत्वं सिद्धयति । (दि० प्र०) 3 अनवस्था । भेदपक्षे प्रत्येकं त्रिलक्षणलक्षणत्वप्रकारेण । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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