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________________ इतरेतराभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २०३ विलक्षणत्वप्रसङ्गः, सत्त्वात्, अन्यथा तदसत्त्वापत्तेः। तथा चानवस्थानान्न समीहितसिद्धिरिति कश्चित्सोप्यनालोचितपदार्थस्वभावः, पक्षद्वयस्यापि कथञ्चिदिष्टत्वात् । [ जैनाचार्याः जीवादेः पदार्थात् उत्पादयः कथंचित् अभिन्ना, भिन्ना चेति मन्यते ] तत्र' तद्वतः कथञ्चिदभेदोपगमे स्थित्यादीनां स्थितिरेवोत्पद्यते सामर्थ्याद्विनश्यति च, विनाश एव तिष्ठति सामर्थ्यादुत्पद्यते च, उत्पत्तिरेव नश्यति सामर्थ्यात्तिष्ठतीति च असत्रूप की कोई व्यवस्था न हो सकने से आपके समीहित–मान्य सभी में त्रैलक्षण की सिद्धि नहीं हो सकेगी। [ जैनाचार्य जीवादि से उत्पादादि को कथंचित् भिन्नाभिन्न सिद्ध करते हैं ] जैन—ऐसा कहते हुए आप सौगत भी पदार्थ के स्वभाव को नहीं समझ सके हैं, क्योंकि कथंचित् हमने दोनों ही पक्षों को स्वीकार किया है। उन स्थिति, उत्पाद और व्यय का स्थित्यादिमान-अन्वयरूप द्रव्य की अपेक्षा से अभेद स्वीकार करने पर स्थिति उत्पन्न होती है और सामर्थ्य से वही नष्ट होती है। विनाश ही ठहरता है और वही सामर्थ्य से उत्पन्न होता है। एवं उत्पत्ति ही नष्ट होती है और सामर्थ्य से वही ठहरती है । इस प्रकार से जाना जाता है कि-विलक्षण वाले जीवादिपदार्थ से अभिन्न स्थितिआदि में त्रिलक्षणपना सिद्ध ही है और इसी प्रकार से अभेदपक्ष में स्थिति आदि में त्रिलक्षणपने का निश्चय हो जाने पर कथंचित् पर्याय की अपेक्षा से उन्हीं स्थिति आदि में स्थित्यादिमान् से भेद के स्वीकार करने पर भी प्रत्येक में विलक्षणत्व की सिद्धि कही गई समझना चाहिये। इसी प्रकार से प्रत्येक में विलक्षणपना सिद्ध करने में हमारे यहाँ अनवस्था भी नहीं आती है, क्योंकि सर्वथा एकांतरूप भेदपक्ष में ही वह सम्भव है, किन्तु स्याद्वादपक्ष में तो वह असम्भव ही है, क्योंकि जिसद्रव्य स्वभाव से स्थिति, उत्पाद, विनाश विलक्षणरूप तत्त्व से अभिन्न हैं. उसी से प्रत्येक तीन लक्षण वाले हैं, और पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से (स्थिति आदि धर्म की अपेक्षा से) वे परस्पर में और स्थित्यादिमान् जीवादि से भिन्न भी स्वीकार किये गये हैं। क्योंकि उस प्रकार की प्रतीति में किसी प्रकार की बाधा संभव नहीं है, इसीलिये सभी प्रतिक्षण विलक्षण सहित है" यह कथन निर्दोष ही है। और इसी कथन से तीन काल की अपेक्षा से भी सभी में त्रिलक्षणपना है। यह भी समझ लेना चाहिये। क्योंकि वे जीवादिवस्तु, अन्वित द्रव्यरूप से कालत्रय व्यापी हैं। अन्यथा-त्रुटयत्तैकांत (निरन्वयविनाशरूप क्षणिकएकांत) में सर्वथा अर्थक्रिया का विरोध है । जैसे कूटस्थ-एकांत-नित्यएकांत में अर्थक्रिया का विरोध है। इसीलिये “जीवादि वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक हैं, क्योंकि क्रम और यगपत के द्वारा अर्थक्रिया की अन्यथानपपत्ति है।" अर्थात यदि ऐसा मानों तो क्रम से या युगपत अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी । इस प्रकार के प्रमाण से यह बात सिद्ध है। 1 न भवेद्यदि त्रिलक्षणत्वम् । (दि० प्र०) 2 सौगतः । (व्या० प्र०) 3 तयोः पक्षयोर्मध्ये स्थित्यादिमतस्सकाशात् । (दि० प्र०) 4 नाशः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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