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________________ २०२ 1 [ कारिका ११ [ बौद्धः पृच्छति यत् जीवादेः पदार्थात् उत्पादादयोऽभिन्ना भिन्ना वा ? उभयत्र दोषारोपणं ] नन्वेवं स्थित्यादयो जीवादेर्वस्तुनो' यद्यभिन्नास्तदा स्थितिरेवोत्पत्तिविनाशौ विनाश एव स्थित्युत्पत्ती, उत्पत्तिरेव विनाशावस्थाने इति प्राप्तम् एकस्मादभिन्नानां स्थित्यादीनां भेदविरोधात् । तथा च कथं त्रिलक्षणता ' स्यात् ? अथ भिन्नास्तर्हि प्रत्येकं स्थित्यादीनां अष्टसहस्री भावार्थ – एक जीव पदार्थ में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य को घटित कीजिये तो उत्पन्न होने वाला जीव ही नष्ट होता है । मतलब जो देवरूप से उत्पन्न होने वाला है या मनुष्यरूप से उत्पन्न हो चुका है वही तो अपनी मनुष्य पर्याय से नष्ट होता है और अपने जीवत्व स्वभाव को न छोड़ते हुये अगली देव पर्याय से उत्पन्न होता है तथा नश्वर विनाशशील वस्तु ही धौव्य रहती है मतलब जो वस्तु स्थिर है उसी का ही नाश हो सकता है । क्षण-क्षण में जड़मूल से नाश होने वाली वस्तु में स्थिति और उत्पादन बन नहीं सकते अतएव पर्याय की अपेक्षा से जिसकी देवपर्याय का नाश हुआ है वही जीव द्रव्य चेतनत्वगुण से स्थिर है क्योंकि सर्वथा असत् का नाश असम्भव है क्या आकाश फूल नष्ट होते ये देखे जाते हैं ? अतः सत् द्रव्यत्व, चेतनत्व आदि से जो स्थिर है उसी का उत्पाद भी होता है। सर्वथा असत् आकाश कुसुम कैसे उत्पन्न होंगे ? इसलिये सभी वस्तुएँ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से तीन लक्षण वाली सिद्ध हैं । तात्पर्य यह है कि उत्पादशील वस्तु का ही विनाश होता है और विनाशशील वस्तु का ही उत्पाद होता है एवं उत्पाद विनाशशील वस्तु ही ध्रौव्यरूप रहती है तथा धौव्यरूप वस्तु में ही उत्पाद विनाश संभव हैं सर्वथा विनाशशील या सर्वथा कूटस्थ नित्य में ये तीनों लक्षण असम्भव हैं पुनः त्रिलक्षण से शून्य वस्तु असत् ही है क्योंकि सत्लक्षण रहित हो गई है । - [ यहाँ पर सौगत का प्रश्न है कि जीवादि द्रव्य से उत्पाद व्यय ध्रौव्य अभिन्न हैं या भिन्न ? एवं दोनों पक्षों में दोषारोपण करता है ] सौगत - प्रश्न होता है कि जीवादि वस्तु से स्थिति, उत्पत्ति और विनाश अभिन्न है या भिन्न ? यदि अभिन्न कहो तब तो स्थिति ही उत्पत्ति-विनाशरूप सिद्ध होती है और उत्पत्ति ही विनाश-स्थिति है ऐसा सिद्ध हो जाता है क्योंकि एक जीवादि अवस्था से अभिन्न स्थिति आदि में भेद का विरोध है । उपर्युक्त प्रकार से पुनः तीनलक्षणपना कैसे हो सकेगा ? 1 का । ( व्या० प्र० ) 2 वस्तुनः । ( दि० प्र० ) यदि जीवादि वस्तु से स्थिति आदि भिन्न हैं तब तो प्रत्येक — स्थिति, उत्पाद और व्यय में भी तीन लक्षणपने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा । क्योंकि वे प्रत्येक सत्रूप हैं और सत् का लक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्य ही है । अन्यथा यदि ऐसा नहीं मानों, तब तो प्रत्येक में असत्पने की आपत्ति आ जावेगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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