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________________ १७२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० 'प्रवेशाद्व्यवधायकावेदनादेश्च- [भेदनादेश्च] दर्शनात्, यस्तु पुद्गलस्वभावो, न तस्यैवं दर्शनं, यथा लोष्ठादेः, तथा दर्शनं च' शब्दस्य, ततो न पुद्गलस्वभावत्वमिति चेन्न', पुद्गलस्वभावत्वेपि तदविरोधात् । तस्य हि निश्छिद्रनिर्गमनादयः सूक्ष्मस्वभावत्वात् स्नेहादिस्पर्शादिवन्न विरुध्येरन् । कथमन्यथा पिहितताम्रकलशाभ्यन्तरात्तैलजलादेर्बहिनिर्गमनं स्निग्धतादिविशेषदर्शनादनुमीयेत ? कथं वा पिहितनिश्छिद्रमृघटादेः सलिलाभ्यन्तरनिहितस्यान्तःशीतस्पर्शोपलम्भात्सलिलप्रवेशोनुमीयेत ? तदभेदनादिकं वा' तस्य' 'निश्छिद्रतयेक्षणात्कथमुत्प्रेक्षेत ? ततो निश्छिद्रनिर्गमनादि:11 स्नेहादिस्पर्शादिभिर्व्यभिचारी, न सम्यग्घेतुर्यतः2 शब्दस्य पुद्गलस्वभावत्वं प्रतिक्षिपेत्', तस्य पुद्गलस्वभावत्वनिर्णयात्सर्वथाप्यविरोधात् । पुद्गल स्वभाव वाले हैं वे उस प्रकार के नहीं देखे जाते हैं। जैसे मिट्टी के ढेले आदि पुद्गल के स्वभाव हैं अतः वे निश्छिद्र महल से बाहर निकल नहीं सकते हैं । एवं शब्द उस प्रकार से निश्छिद्र महल से बाहर निकलते देखे जाते हैं, इसलिये वे पुद्गल के स्वभाव नहीं हैं। जैन-ऐसा कथन ठीक नहीं है । पुद्गल की पर्याय होने पर भी वे शब्द छिद्र रहित भवन से निकलते एवं प्रवेश करते रहते हैं, इसमें कोई बाधा नहीं है। उन शब्दों का छिद्ररहित भवन से निकलना एवं प्रविष्ट होना आदि विरुद्ध नहीं है, क्योंकि वे सूक्ष्मस्वभाव वाले हैं। जैसे कि स्नेह-तैल, घी आदि चिकने पदार्थ निश्छिद्र घड़े से भी बाहर निकलकर घड़े को चिकना कर देते हैं एवं स्पर्श-उष्ण, शीत आदि निश्छिद्र घड़े में प्रविष्ट हो उसको आभ्यंतर को वस्तु गर्म या ठंडी कर देते हैं। अन्यथा-यदि पुद्गल की पर्यायें बाहर निकलना और अंतः प्रविष्ट होना न करें तब तो पूर्णतया ढके हुये तांबे के कलश के भीतर से तैल, जल आदि का बाहर निकलना, स्निग्धता आदि विशेष के देखने से कैसे अनुमित किया जावेगा ? अथवा ढके हुए निश्छिद्र मिट्टी के घड़े आदि जिसके भीतर जल भरा हुआ है, उस घड़े के भीतर शीतस्पर्श की उपलब्धि होने से जल प्रवेश का अनुमान किया जाता है, सो भी कैसे होगी? अथवा घट को निश्छिद्ररूप देखने से उसके अभेदन-घट के न फूटने आदि की उत्प्रेक्षा भी कैसे की जा सकेगी? इसलिये निश्छिद्र से निकलना आदि हेतु स्नेह-तैलादि और स्पर्शादि से व्यभिचारी होने से यह सम्यक सच्चा हेतु नहीं है, जो कि शब्द को पौद्गलिक होने का खंडन कर सके । अतः उन शब्दों के पौद्गलिक स्वभाव का निर्णय हो जाता है । इस विषय में सर्वथा भी विरोध का अभाव है। 1 कुड्यादि । (ब्या० प्र०) 2 भेदनास्तु इति पा० । (दि० प्र०) 3 ता । (दि० प्र०) 4 चैन्न, तस्य पुद्गलस्वभावत्वेपि इति पा० । (दि० प्र०) 5 अन्यथेति सम्बन्धनीयमत्र। (ब्या० प्र०) 6 व्यवधायकस्य । तस्य मृद्घटादेरभञ्जनादिकं कथं दृश्येत् । (दि० प्र०) 7 अत्राप्यन्येति सम्बन्धनीयम् । (दि० प्र०) 8 कलशादेः। (दि० प्र०) 9 प्रश्नः । (दि० प्र०) 10 दृश्येत् । (दि० प्र०) |1 विहेतुकम् । (दि० प्र०) 12 नैव । (दि० प्र०) 13 हेतुः । (दि० प्र०) 14 निश्छिद्रनिर्गमनादिना सह । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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