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________________ शब्द के अमूर्तत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १७१ पूरणकश्रोत्र'प्रवेशाधुपालम्भो गन्धपरमाणुकृतप्रतिविधानतयोपेक्षामर्हति । ननु च न पुद्गलस्वभावः शब्दः; अस्पर्शत्वात् सुखादिवदिति बाधकसद्भावान पुद्गलस्वभावत्वं शब्दस्येति चेन्न, हेतोरसिद्धत्वात् यतः कर्णशष्कुल्यां कटकटायमानस्य प्रायशः प्रतिघातहेतोवना'धुपघातिनः शब्दस्य प्रसिद्धिरस्पर्शत्वकल्पनामस्तङ्गमयति । [ शब्दाः निश्छिद्रभावनाबहिनिर्गच्छन्ति अंतः प्रविशंति पौद्गलिकाः एव इति साध्यते ] ननु च न पुद्गलस्वभावः शब्दः, निश्छिद्रभवनाभ्यन्तरतो निर्गमनात्, तत्र बाह्यतः एवं पूर्वोक्त प्रकार से शब्द को पुद्गलस्वभाव-पुद्गल की पर्याय स्वीकार करने पर दर्शन-उनका चक्षु से देखना, विस्तार-स्व मर्यादा को उलंघन कर आगे भी फैलना, विक्षेप-बिखरना, प्रतिघात, कर्णपूरण, एकश्रोत्रप्रवेश आदि जो उलाहना दी गई हैं वे उलाहना गंधपरमाणु के विषय में दिये गये प्रत्युत्तर से उपेक्षा के ही योग्य हैं । अर्थात् ये सभी दोष आपके गंधपरमाणु में लागू हो जाते हैं, अतः आपका कथन ठीक नहीं है। ___ नैयायिक—शब्द पुद्गल का स्वभाव नहीं है क्योंकि उसका स्पर्श नहीं पाया जाता है, जैसे कि सुखादि का स्पर्श नहीं पाया जाता है, अतः वे सुखादि पुद्गल के स्वभाव नहीं हैं । इस प्रकार के बाधक प्रमाण का सद्भाव होने से पुद्गल स्वभावपना शब्द में नहीं है। जैन--नहीं, क्योंकि आपका हेतु असिद्ध है । यतः कर्ण शष्कुली-मोटी और कड़ी पूड़ी के खाते समय कटकटायमान-कुड़कुड़ शब्द प्रायः प्रतिघात का हेतु देखा जाता है और भवन-भित्ति आदि को, उपघात से भी मूर्तिक शब्द की प्रसिद्धि होती ही है, यथा कोई एक पुरुष उच्चध्वनि से पाठ कर रहा है और दूसरा धीरे-धीरे बोल रहा है तो धीरे बोलने वाले की ध्वनि दब जाती है। इस प्रकार से जो शब्द की प्रसिद्धि है वह अस्पर्शत्व-स्पर्श न होने की कल्पना को अस्त कर देती है। [ शब्द निश्छिद्र महल से बाहर निकलते हैं एवं प्रवेश कर जाते हैं फिर भी पौद्गलिक हैं ] नैयायिक--शब्द पुद्गल के स्वभाव नहीं हैं क्योंकि निश्छिद्र महल के अभ्यंतर से निकल जाते हैं और अभ्यंतर में बाहर से आकर प्रवेश कर जाते हैं, व्यवधान का भेदन भी नहीं करते हैं। जो 1 ता । (दि० प्र०) 2 दूषणम् । (दि० प्र०) 3 परमाणुः प्रकृत यत् प्रतिविधानं तत्तया। तस्मादेवं शब्दस्य पुद्गलस्वभावत्वे सति स्याद्वादिनः परेण मीमांसकेन आरोपितः दर्शनविस्तारादिदोषः गन्धस्कन्धपरिणतगन्धपरमाणुविहितप्रतीकारत्वेन उपेक्षामवगणनामर्हति योग्यो भवति । दूषणस्यावकाशो नास्तीत्यर्थः । (दि० प्र०) 4 द्रव्यमन्तरेण गन्धगुणस्यागमनादनंतरोक्ताशेषदोषो नावकाशं लभत इति नाशंकितव्यम् । मीमांसकस्य गुणगुणिनोस्तादात्म्याभ्युपगमाद् गुणमात्रागमनानुपपत्तेः । नैयायिकादिभिरपि गुणस्य निष्क्रियत्वाभ्युपगमात् । तथा च तद्ग्रन्थः । गुणादीनां पञ्चानामपि निर्गुणत्वं निष्क्रियत्वे इति । (दि० प्र०) 5 ननु नेति पा० । (दि० प्र०) 6 कुतः। (ब्या० ०प्र) 7 ता । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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