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________________ शब्द के अमूर्तत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद नैयायिकाभिमत शब्दनित्यत्व का सारांश नैयायिक - शब्द को अमूर्तिक आकाश का गुण अमूर्तिक ही मानता है । उसका कहना है कि " शब्द पुद्गल का स्वभाव नहीं है क्योंकि उसका स्पर्श नहीं पाया जाता है सुखादि के समान ।" यदि शब्द को पुद्गल की पर्याय मानोगे तब तो उनका चक्षु से देखना, मर्यादा को उलंघन कर आगे भी फैलना, बिखरना, कर्ण में भर जाना, एक ही श्रोत्रेन्द्रिय में प्रवेश हो जाना आदि अनेक दोष आते हैं । तथा शब्द तो निश्छिद्र महल के भीतर से निकल जाते हैं एवं अभ्यंतर में बाहर से आकर प्रवेश कर जाते हैं, व्यवधान का भेदन भी नहीं करते हैं अतएव वे पौद्गलिक नहीं हैं । [ १७३ इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि " शब्द पुद्गल की ही पर्याय हैं अतः मूर्तिक हैं स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से सहित हैं क्योंकि "स्पर्श रसगंधवर्णर्वतः पुद् गलाः" यह सूत्र है । तथा बहु से पुद्गल स्कंध भी ऐसे अचाक्षुष हैं जिनका स्पर्श आदि व्यक्त नहीं है एतावता उनको अमूर्तिक नहीं कह सकते हैं एवं न उनका अभाव ही कर सकते हैं । तथा शब्द से प्रतिघात भी देखा जाता है । कोई मोटी एवं कड़ी पूड़ी खा रहा है उसके कुड़कुड़ शब्दों से प्रायः प्रतिघात देखा जाता है एवं भवन भित्ति आदि से भी प्रतिघात देखा जाता है । कोई पुरुष उच्च ध्वनि से पाठ कर रहा है और दूसरा धीरे-धीरे बोल रहा है तो उसकी ध्वनि दब जाती है । अतः शब्द का स्पर्श नहीं मानना गलत है । और जो आपने चक्षु आदि से दिखना चाहिये इत्यादि दोष दिये हैं वे सभी दोष गंधपरमाणुओं में भी मानने पड़ेंगे क्योंकि गंधपरमाणु पुद्गल की पर्याय हैं वे भी नहीं दीखते हैं । यदि आप कहें कि वे गंधपरमाणु अदृश्य हैं अतः चक्षु इन्द्रिय से नहीं देखे जाते हैं पुनः शब्दों को भी तथैव मानों क्या बाधा है ? पवन से प्रेरित होने पर उन शब्दों का विस्तृत होना, बिखरना आदि मानोगे तो गंधपरमाणुओं में भी मानना पड़ेगा । भित्ति आदि से गंधपरमाणुओं का प्रतिघात प्रसिद्ध है तथैव शब्दों का भी प्रतिघात प्रसिद्ध है । एवं जो आपने कहा कि स्कंधरूप से परिणत मूर्तिमान् शब्द परमाणुओं के द्वारा श्रोता का कान पूर्णतया भर जावेगा । एवं पौद्गलिक शब्द एक श्रोता के एक ही कान में प्रविष्ट हो जावेंगे पुनः उसी योग्य देश में स्थित अन्य श्रोताओं को कुछ भी शब्द सुनाई नहीं पड़ेंगे इत्यादि । ये दोष तो आपके गंधपरमाणुओं में भी आ जायेंगे । वे गंधपरमाणु भी नाक में भर जावेंगे तो स्वांस लेना ही कठिन हो जावेगा एवं वे एक के ही नाक में घुस जावेंगे तो अन्य किसी सूंघने वालों को कुछ भी गंध नहीं आ सकेगी । इस पर नैयायिक ने कहा कि हमारे यहाँ ऐसा माना है कि सदृशपरिणामवाले गंधपरमाणु सब तरफ फैल जाते हैं । अतः ये दोष नहीं आते हैं तब तो समानपरिणामवाले शब्दपरमाणु भी नाना दिशाओं में फैल जाते हैं । अतः एक श्रोता को ही सुनाई देवें इत्यादि दोष नहीं आते हैं । यदि आप कहें कि गंधपरमाणुओं का प्रतिपत्तिविशेष की अन्यथानुपपत्ति होने से निश्चय हो जाता है उसमें भाग्य की कल्पना नहीं है, किन्तु शब्द के आगमन में भाग्य की कल्पना कीजिये । इस पर आचार्यों का कहना है कि श्रोताओं के जिन-जिन श्रुतज्ञानावरणरूप शब्दावरण का क्षयोपशम होता है उसी प्रकार से उपलब्धियोग्य परिणामविशेष के होने से उन उन ही अक्षरों का सुनना होता है । जो आपने कहा कि निश्छिद्र महल से निकलना आदि होने से शब्द पुद्गल नहीं हैं सो भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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