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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १५६ विरुध्येत ? इति चेदत्रोच्यते, 'वक्तृश्रोतृविज्ञानयोस्तत्कारणकार्ययोः क्रमवृत्तिमपेक्ष्य परिणामिनां क्रमोत्पत्तिप्रतिपत्त्योर्न किञ्चिद्विरुद्धं पश्यामः । समानेपि हि शब्दानामारम्भकपुद्गले तद्देशकालवत्तिन्युपादाने सहकारिणि च बहिरङ्ग ताल्वादिकरणे' वक्तृविज्ञानस्य वर्णोत्पत्तौ सहकारिकारणस्याऽऽन्तरस्य क्रममपेक्ष्य क्रमोत्पत्तौ परिणामिनां न किञ्चिद्विरुद्धं पश्यामः, 'कारणक्रमानुविधायित्वात्सर्वत्र' कार्यक्रमस्य, शश्वदपरिणामिनामेव' तथाविरोधदर्शनात् । नापि श्रोतृविज्ञानस्य शब्दकार्यस्य क्रममपेक्ष्य वर्णक्रमप्रतिपत्तौ किञ्चिद्विरुद्धं पश्यामः, प्रमाणक्रमानुविधायित्वात्तत्फलभूतप्रमितिक्रमस्य सततमपरिणामिनामेवात्मना10 1 तद्विरोधनि सभी शब्दों की उत्पत्ति एक साथ हो जाने से सभी के कान में कलकल ध्वनि हो जावेगी अथवा क्रम-क्रम से भी सुनना नहीं बन सकेगा इत्यादि । आगे आचार्य इसका समाधान कर रहे हैं__ जैन-"शब्द हैं कारण कार्य जिसमें ऐसे वक्ता और श्रोता के विज्ञान में क्रमवृत्ति की अपेक्षा करके शब्दलक्षण पर्याय से परिणत जो परिणामी-पुद्गल हैं, उनकी क्रम से उत्पत्ति और प्रतिपत्ति के होने में हमें कुछ भी विरोध नहीं दिखता है।" शब्दों के आरम्भिक पुद्गल जो कि तद्देश= कालवर्तीरूप से उपादानकारण हैं उनके समान होने पर एवं ताल्वादि बहिरंग सहकारीकारण के समान होने पर भी वर्ण की उत्पत्ति में वक्ता का विज्ञान सहकारीकारण है और उसके अंतर से क्रम की अपेक्षा करके परिणामी शब्दों की क्रम से उत्पत्ति मानने पर किंचित् भी विरोध नहीं आता है क्योंकि सभी जगह सभी कार्यक्रम अपने कारणक्रम का अनुसरण करते ही हैं । तथा शश्वत-हमेशा नित्यरूप अपरिणामीवस्तु में ही क्रम से उत्पत्ति का विरोध देखा जाता है। और जो शब्द का कार्यभूत श्रोता का विज्ञान है, उसमें भी क्रम की अपेक्षा करके वर्गों का क्रम-क्रम से ज्ञान होने में कुछ भी विरोध नहीं दिखता, क्योंकि प्रमाण को फलभूत प्रमिति का क्रम उस श्रोतृ विज्ञानरूप प्रमाण का अनुसरण करने वाला है । सदैव ही जो स्वरूप से अपरिणामी नित्य हैं, उन्हीं में उपर्युक्त विरोध पाया जाता है। अर्थात् श्रोता को शाब्दिक ज्ञान जैसे-जैसे होता जाता है वैसे-वैसे ही शब्दों के अर्थ का जानना रूप फल कम से ही हो जाता है। शब्दों में ही यह विशेषता है और इसीलिये हम स्याद्वादियों के यहाँ मिश्रितरूप शब्दों के सुनने का प्रसंग नहीं आता है | ता। (दि. प्र०) 2 कारणे इति पा० । (दि० प्र०), स्थाने । (दि० प्र०) 3 क्रमोत्पत्तिरूपम् । 4 वक्तविज्ञानलक्षणसहकारि । (ब्या० प्र०) 5 अर्थे । (ब्या० प्र०) 6 शब्दपर्यायलक्षण । (ब्या० प्र०) 7 नित्यार्था नाम् । (ब्या० प्र०) 8 ज्ञप्तिपक्ष दूषणं निराकरोति जैनः । (ब्या० प्र०) 9 वयं स्याद्वादिनः । (दि० प्र०) 10 पदार्था- नाम् । (दि० प्र०) 11 क्रमः । (दि० प्र०) . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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