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________________ अष्टसहस्री [ कारिका १० प्रत्येकमनेकत्वापत्तिरेकानेकात्मकत्वप्रसङ्गो वा । सर्वात्मनाभिव्यक्तौ सर्वदेशकालवत्तिप्राणिनः ' प्रति तेषामभिव्यक्तत्वात् कथं सर्वत्र सर्वदा सर्वेषां सङ्कुला श्रुतिर्न स्याद्यतः कलकलमात्रं न भवेत् । १५८ ] [ अधुना मीमांसका: जैनाभिमतशब्दानामुत्पत्तिपक्षेऽपि दोषानारोपयंतीति तान्निराकुर्वन्ति जैना: ] ननु' 'समानोपादानकारणानामभिन्नदेशकालानां समान कारणानामुत्पत्तावपि तद्देशकालवर्त्तिसकलपुरुषाणामविकलसहकारिणां कथं न संकुला श्रुतिः स्यात् क्रमश्रुतिर्वा न सभी काल में सभी वर्णों का एक साथ मिश्रितरूप से सुनना क्यों नहीं होगा कि जिससे कल-कल मात्र ही न हो जावे ? अर्थात् सारा जगत कल-कल ध्वनिरूप ही हो जावेगा । भावार्थ - आचार्यों ने दो विकल्प उठाये हैं कि वे नित्य और व्यापी वर्ण सर्वत्र खण्ड-खण्डरूप से उपलब्ध होते हैं या सर्वात्मकरूप से ? यदि प्रथमपक्ष लेवें तो वर्ण व्यक्त और अव्यक्तरूप भेद स्वभाव हो जाने से वर्ण एक स्वभाव वाले नहीं रहते हैं । यदि द्वितीयपक्ष लेवें तो सभी देश कालवर्ती प्राणियों को सर्वदा सभी जगह सभी शब्द सुनने में आने लगेंगे तब तो कलकलमात्र ही हो जावेगा । पुनः उस कलकल में यह समझ ही नहीं पड़ेगा कि कौन क्या कह रहा है ? तब तो बहुत बड़ी आपत्ति आ जावेगी । सभी के सभी काम रुक जायेंगे । और सभी एक दूसरे का मुँह देखते रह जायेंगे | [ मीमांसकों के द्वारा जैनाभिमत शब्दों की उत्पत्ति पक्ष में भी दोषारोपण ] मीमांसक - तब तो आप जैनियों के यहाँ उत्पत्तिपक्ष में भी समानरूप उपादानकारण वाले अभिन्नदेश और अभिन्नकालवर्ती एवं समान बाह्यकारणसहित शब्दों के उत्पन्न होने में उस देश, कालवर्ती सभी पुरुषों को जिनको कि सभी सहकारी कारण मिल चुके हैं, उन पुरुषों को भी शब्दों का मिश्रितरूप सुनना क्यों नहीं होगा अथवा क्रम से सुनने का विरोध क्यों नहीं होगा ? भावार्थ - जैनाचार्य शब्द को अनित्य मानते हैं एवं उत्पत्तिमान् मानते हैं तथा मीमांसक के नित्यपक्ष में दूषण देते हैं । उस पर मीमांसक भी उन्हीं जैनों द्वारा दिये गये दूषणों को जैनियों के उत्पत्तिपक्ष में भी लगाना चाहते हैं वे कहते हैं कि सभी शब्दों का उपादानकारण पोद्गलिक शब्दवर्गणायें हैं और इसीलिये समान उपादानकारण होने से इन वर्णों का देश काल भी अभिन्न है अर्थात् ककार का उपादान जहाँ है वहीं पर गकार, चकार आदि का उपादान मौजूद है । और बाह्यकारण भी तात्वादि सभी के समान हैं। जिन्हें सभी अविकलरूप - पूर्णतया सहकारीकारण मिल चुके हैं ऐसे सकलदेश, कालवर्ती सभी मनुष्यों को उपर्युक्तलक्षण शब्द की उत्पत्ति मानने पर भी 1 ईप् । (दि० प्र०) 2 आह मी० हे स्याद्वादिन् ! भवन्मतेऽपीदृशां वर्णानां संकुला श्रुतिः कथं न स्यात् इत्यावयोः समानं दूषणम् । (दि० प्र० ) 3 शब्दपुद्गलरूपं येषाम् । ( दि० प्र० ) 4 शब्दानाम् 1 (दि० प्र० ) 5 विवक्षित । ( दि० प्र० ) 6 इन्द्रियादि बस: । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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