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________________ अष्टसहस्री १६० ] [ कारिका १० र्णयात् । तन्न संकुला श्रुतिः स्याद्वादिनां प्रसज्येत । सर्वगतानामेष क्रमो दुष्करः स्यात् । ततः क्रमोत्पत्तिप्रतिपत्त्योरन्यथानुपपत्त्या न सर्वगता वर्णा, नापि नित्याः प्रत्येतव्याः । "क्योंकि शब्दों को सर्वगत मानने में ही यह क्रम दुष्कर है।" अतएव क्रमोत्पत्ति और प्रतिपत्ति की अन्यथानुपपत्ति होने से वर्ण सर्वगत नहीं हैं और नित्य भी नहीं हैं, ऐसा समझना चाहिये। __ भावार्थ-मीमांसक का कहना है कि शब्दों के बनाने वाले पुद्गल उपादानरूप से सभी पुरुषों के लिये समान हैं एवं ताल्वादि सहकारीकारण भी समान हैं और सभी श्रोताओं के श्रोत्रेन्द्रिय भी शब्द सुनने के लिये समान हैं अतः या तो सभी शब्द एक साथ उत्पन्न होकर सभी श्रोताजनों को एक साथ सुनाई देने लगें या तो क्रम से भी न सुनाई देवें। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि यद्यपि शब्द के आरंभक पुद्गलरूप उपादानकारण एवं वक्ता और श्रोता के ताल्वादिव्यापार और श्रोत्रेन्द्रियरूप सहकारीकारण सर्वत्र समान हैं फिर भी युगपत् सुनने का दोष क्यों नहीं आता है ? सो सुनो ! वर्णों की उत्पत्ति में वक्ता पुरुष के मतिश्रुतज्ञानावरण और वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशमरूप विज्ञान सहकारीकारण एक और है उसके बिना शब्द उत्पन्न नहीं हो सकते हैं । अतः 'क्षयोपशमज्ञानरूप अंतरंगनिमित्त और ताल्वादिव्यापाररूप बहिरंग निमित्त' इन दोनों निमित्तों से ही शब्दरूप कार्य उत्पन्न होता है। जैसे कि उपादान रूप जीवात्मा सर्वकाल में विद्यमान है और अंतरंग निमित्त (सहकारीकारण) मनुष्यगति, मनुष्य आयु आदि कर्मों का उदय एवं बहिरंगकारण माता-पिता के रजोवीर्य से बना हुआ पौद्गलिक पिंडरूप शरीर है। जब अंतरंग-बहिरंग दोनों ही निमित्त-कारण मिलते हैं तब उपादानरूप जीवात्मा मनुष्य पर्याय को धारण कर सकता है अन्यथा नहीं। उसी प्रकार से श्रोता का भी ज्ञानावरण का क्षयोपशम विशेषरूप विज्ञान जैसे-जैसे प्रगट होता है वैसे-वैसे ही उस श्रोता को भी क्रम-क्रम से ही वर्गों का ज्ञान होता है । यदि श्रोता के श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं है तो वक्ता कितना ही बकता रहे श्रोता के पल्ले उसका कुछ अर्थ नहीं पड़ता है अथवा नींद लेने लगता है या उठकर चल देता है। अतएव एक-एक वर्ण, पद, वाक्यों के भी क्षयोपशमविशेष से ही क्रम-क्रम से वक्ता के शब्दों से या द्रव्यश्रतरूप अचेतन जिनवाणी के लिखित वर्गों से श्रोता को ज्ञान होता है, अन्यथा नहीं होता है। यदि ग्रंथ के एक श्लोक या एक पद का क्षयोपशमज्ञान नहीं है तो उसका भी ज्ञान श्रोता को होना असंभव है। यहाँ इस बात पर ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि श्रोता-जीवात्मा के भाग्य की कल्पना उचित है किन्तु शब्दों के भाग्य की कल्पना उचित नहीं है क्योंकि शब्द अचेतन हैं। अतः तात्पर्य यह निकला कि वक्ता और श्रोता का श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशमविशेषज्ञान सहकारीकारण है और वह क्रम-क्रम से होता हुआ क्रम-क्रम से वर्गों की उत्पत्ति और प्रतिपत्ति-ज्ञान कराता है इसमें बाधा नहीं है। 1 आशंक्य । (दि० प्र०) 2 अन्यथा प्रतिपत्त्या वा पाठ० । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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