________________
( २० )
कोई-कोई भाट्ट लोग भाव और अभाव इन दोनों को भी मान रहे हैं किन्तु दोनों को परस्पर निरपेक्ष मानते हैं। इसलिये उनकी मान्यता भी गलत हैं। क्योंकि सभी वस्तुएं स्वरूप के समान पररूप से अस्तिरूप एवं पररूप के समान स्वरूप से नास्तिरूप नहीं हैं । तथा अस्ति धर्म नास्तित्व की एवं नास्ति धर्म अस्तित्व की अपेक्षा रखता है। इसलिये 'उभयकात्म्य' भी गलत है।
कोई बौद्ध लोग वस्तु को सर्वथा सत् असत् धर्म से रहित होने से अवक्तव्य मानते हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक वस्तु सर्वथा 'अवाच्य' है क्योंकि शब्दों से उसका कथन नहीं किया जा सकता है। किन्तु यह एकान्त भी श्रेयस्कर नहीं है । जैनाचार्य वस्तु को सत्रूप-भावरूप भी मानते हैं, असत्-अभावरूप भी मानते हैं, भावाभाव -उभयात्मक भी मानते हैं तथा अवक्तव्य-अवाच्य भी मानते हैं । सो कैसे ?
भावाभावद्यनेकांत सिद्धि
हे भगवन् ! आपके शासन में सभी वस्तुएँ कथंचित् भाव-अस्ति-सत्रूप है और वे ही सभी वस्तुयें कथंचित् अभाव-नास्ति-असत्रूप हैं, कथंचित् उभय आदि सप्त भंगरूप से प्रसिद्ध हैं । यथा
"प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी" प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में अविरोधरूप से विधि और निषेध की कल्पना सप्तभंगी कहलाती है।
यहाँ इस सप्तभंगी को जीव द्रव्य में घटित करते हैं
१. स्यात् जीवद्रव्य अस्तिरूप है २. स्यात् जीवद्रव्य नास्तिरूप है ३. स्यात् जीवद्रव्य अस्ति नास्ति रूप है ४. स्यात् जीवद्रव्य अवक्तव्य है ५. स्यात् जीवद्रव्य अस्ति अवक्तव्य है ६. स्यात् जीवद्रव्य नास्ति अवक्तव्य है ७. स्यात् जीवद्रव्य अस्तिनास्ति अवक्तव्य है।
__ यहाँ पर अस्तित्वादि एकान्त का निषेधक और अनेकांत का द्योतक 'कथंचित्' इस अपरनाम वाला 'स्यात्' शब्द बहुत ही महत्वशाली है, उसी का स्पष्टीकरण
प्रथम भंग में जीवद्रव्य स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अस्तिरूप है। द्वितीय भंग में वही जीवद्रव्य पर अजीवादि के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्तिरूप है अर्थात् जीवद्रव्य में पर-अजीव का अस्तित्व नहीं है। वही जीवद्रव्य क्रम से स्व और पर दोनों की अपेक्षा करने से अस्ति-नास्तिरूप है । वही जीव द्रव्य युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से अवक्तव्य-अवाच्यरूप है । वही जीवद्रव्य स्व चतुष्टय से तथा युगपत् स्वपर चतुष्टय से विवक्षित करने से 'अस्ति अवक्तव्य' इस पाँचवें भंगरूप है । वही जीवद्रव्य पर चतुष्टय तथा युगपत् स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा से नास्ति अवक्तव्यरूप है । वही जीवद्रव्य स्वपर चतुष्टय की क्रम और युगपत् अपेक्षा रखने से 'अस्तिनास्ति-अवक्तव्य' इस सातवें भंग रूप हैं।
यह कथन बिल्कुल ही ठीक है क्योंकि प्रत्येक वस्तुएँ स्वरूप से सत्रूप एवं पररूप से असत्-अभावरूप हैं। तथा अस्ति धर्म नास्तित्व का अविनाभावी है वैसे ही नास्ति धर्म अस्तित्व के बिना नहीं रह सकता है । जब प्रथम भंग में भाव प्रधान रहता है तब शेष छहों भंग गौण हो जाते हैं एवं जब द्वितीय भंग का अभाव धर्म प्रधान रहता है तब भी शेष छह भंग गौण हो जाते हैं । इस प्रकार से “अर्पितानर्पितसिद्धेः" सूत्र के अनुसार अर्पित-विवक्षित धर्म प्रधान रहता है। तथा अनर्पित-अविवक्षित धर्म गौण रहता है तभी वस्तु तत्त्व की सिद्धि होती है। जैसे जीव का जब नित्य धर्म प्रधान किया जाता है तब अनित्य धर्म नष्ट न होकर गौण हो जाता है एवं जब अनित्य धर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |