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यदि आप कहें कि गंध परमाणुओं के ज्ञान विशेष की अन्यथानुपपत्ति होने से निश्चय हो जाता है उसमें भाग्य की कल्पना नहीं है किन्तु शब्द के आगमन में भाग्य की कल्पना कीजिए।
इस पर आचार्यों का कहना है कि-श्रोताओं के जिन-जिन श्रुतज्ञानावरण रूप शब्दावरण का क्षयोपशम होता है उसी प्रकार से उपलब्धि योग्य परिणाम विशेष के होने से उन-उन ही अक्षरों का सुनना होता है ।
जो आपने कहा कि निश्छिद्र महल से निकलना आदि होने से शब्द पुद्गल नहीं हैं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि छिद्ररहित भवन से निकलना एवं प्रविष्ट होना पुद्गल में विरुद्ध नहीं है क्योंकि वे शब्द पुद्गल सूक्ष्म स्वभाव वाले हैं जैसे तेल, घी आदि चिकने पदार्थ निश्छिद्र घडे से बाहर निकलकर घड़े को चिकना कर देते हैं एवं उष्ण, शीत, स्पर्श आदि निश्छिद्र घडे में प्रविष्ट होकर उसकी आभ्यंतर की वस्तु गर्म या ठंडी कर देते हैं यह सर्वजन सुप्रसिद्ध है। तत्त्वार्थसूत्र में "शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च" इस सत्र में शब्द को पुद्गल की पर्याय सिद्ध किया है। अतः शब्द आकाश का गुण नहीं है और न अमूर्तिक ही है ऐसा समझना चाहिये । यही कारण है कि आजकल शब्दों को टेप रिकार्डर में भर लेते हैं, रेडियो, टेलीफोन आदि द्वारा हजारों मील दूर पहुँचा देते हैं । यह सब पौद्गलिक शक्ति का ही विकास हो रहा है। इन सभी आविष्कारों से भी शब्द पोद्गलिक और मूर्तिक सिद्ध हो रहे हैं । अष्टसहस्रीकार आचार्यवर्य श्रीविद्यानन्द महोदय ने ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में भावैकांत का खंडन किया है अर्थात् जो सांख्य आदि सभी पदार्थों को सर्वथा सद्भावरूप ही स्वीकार करते हैं उनका खंडन करके प्रागभाव आदि चार प्रकार के भभावों को सिद्ध किया है। आगे जो लोग सभी पदार्थों को अभावरूप ही मानते हैं उनका निरसन कर रहे हैं
. बौद्धों के यहाँ माध्यमिक नाम का एक भेद है । ये लोग सभी जगत् को सर्वथा शून्यरूप ही मानते हैं । उनका कहना है कि 'यह जगत् सर्वथा शन्यरूप ही है जो कुछ भी प्रतिभास हो रहा है वह असत्य है । जो चेतन अचेतन तत्त्व दिख रहे हैं वे संवृति-कल्पनारूप हैं। एवं शून्यवाद को सिद्ध करने में जो आगम, अनुमान आदि प्रमाण हैं वे भी काल्पनिक हैं।'
इस पर जैनाचार्य प्रश्न करते हैं कि आप बौद्धों के यहां वह 'संवति क्या चीज है ? यदि कहो कि संवृति का अर्थ है अपने स्वरूप से होना' तब तो हमने भी सभी वस्तुओं का स्वरूप से अस्तित्व माना है। यदि कहो कि 'संवृति-पररूप से न होना' यह अर्थ है तो यह भी हमारे अनुकूल ही है क्योंकि हम लोग भी वस्तु में पररूप से नास्ति धर्म मानते हैं । यदि कहो कि 'विचारों का न होना संवृति है' तब तो शून्य के साधक वाक्य भी कैसे बनेंगे? अतः बड़े आश्चर्य की बात है कि दिग्नागाचार्य आदि आज भी इस शन्यवाद को सिद्ध करने में लगे हुये हैं इसमें उनके मोहनीय कर्म के तीव्र उदय के सिवा और कोई भी कारण नहीं हो सकता है । क्योंकि जब सर्वथा शून्यवाद ही है तब आपके बुद्ध भगवान्, आगम आदि भी कैसे सिद्ध हो सकेंगे ?
बौद्ध-वास्तव में हमारे यहाँ बुद्ध भगवान् और आगम आदि सभी विभ्रम रूप ही हैं । ये सभी संवृति से ही मान्य हैं अर्थात् काल्पनिक हैं ।
जैन-तब तो प्रश्न यह होता है कि इस विभ्रम में विभ्रम है या अविभ्रम? यदि विभ्रम में अविभ्रम है तो सभी विभ्रम रूप नहीं रहे। और यदि विभ्रम में भी विभ्रम है, तो विभ्रम कैसे रहेगा? अपित विभ्रम में विभ्रम के हो जाने से अविभ्रम-सत्य ही सिद्ध हो जायेगा। इसलिये सर्वथा नैरात्म्यवाद श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि उसके मानने वाले तो सबसे पहले अपना, अपने भगवान् का और सभी का ही घात कर लेते हैं।
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