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________________ ( १८ ) पर नियम से कार्य का विनाश होवे वह प्रध्वंस है। जिसके सद्भाव में दूसरी अनंतों पर्यायों का अभाव रहे वह इतरेतरा भाव है । घट-पट का परस्पर में इतरेतराभाव है । भिन्न-भिन्न द्रव्य में अत्यंताभाव है । जीव स्वरूप से अस्तित्वरूप होकर भी पुद्गलादि से अभावरूप हैं। क्योंकि सभी पदार्थ स्वरूप से भावरूप और पररूप से अभावरूप लक्षणवाले ही हैं। मीमांसक शब्द को नित्य मानता है अतः उसमें प्रागभाव नहीं मानता है। किन्तु जैनाचार्यों ने शब्द को पौद्गलिक शब्द वर्गणारूप होने से नित्य माना है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य माना है। इसलिये शब्द में प्रागभाव घटित है वक्ता के ताल आदि प्रयत्न से शब्द उत्पन्न होते हैं और विनष्ट भी होते हैं। नैयायिक अभाव को सर्वथा तुच्छाभावरूप ही मानता है किन्तु जैनाचार्य अभाव को भावांतररूप मानते हैं। जैसे-'अजैनः' कहने से जैन के बजाय और किसी धर्म वाले व्यक्ति का बोध होता है न कि सर्वथा अभाव का । दीपक के बुझने पर प्रकाश का अभाव हुआ मतलब छाया का सद्भाव हुआ। प्रकाश और छाया दोनों पुद्गल की ही पर्यायें हैं । अत: जैनाचार्यों द्वारा मान्य अभाव भावान्तर–भिन्न भावरूप ही है। शब्द मूर्तिक हैं नैयायिक शब्द को अमूर्तिक आकाश का गुण अमूर्तिक ही मानता है उसका कहना है कि-"शब्द पुद्गल का स्वभाव नहीं है क्योंकि उसका स्पर्श नहीं पाया जाता है सुखादि के समान" । यदि शब्द को पुद्गल की पर्याय मानोगे तब तो उनका चक्ष से देखना, मर्यादा को उलघंन कर आगे भी फैलना, बिखरना, कर्ण में भर जाना, एक ही श्रोत्रेन्द्रिय में प्रवेश हो जाना आदि अनेक दोष आते हैं। शब्द तो निश्छिद्र महल के भीतर से निकल जाते हैं एवं आभ्यंतर में बाहर से आकर प्रवेश कर जाते हैं, व्यवधान का भेदन भी नहीं करते हैं अतएव वे पौद्गलिक नहीं हैं। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि शब्द पुद्गल की ही पर्याय हैं अतः मूर्तिक ही हैं, स्पर्श रस गंध वर्ण से सहित हैं क्योंकि "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः" यह सूत्र है । बहुत से पुद्गल स्कंध भी ऐसे अचाक्षुष हैं जिनका स्पर्श आदि व्यक्त नहीं है एतावता उनको अमूर्तिक नहीं कह सकते, न उनका अभाव ही कर सकते हैं तथा शब्द से प्रतिघात भी देखा जाता है । कोई मोटी एवं कड़ी पूड़ी आदि खा रहा है उसके कड़-कड़ शब्दों से प्रायः प्रतिघात देखा जाता है जैसे-कोई पुरुष उच्चध्वनि से पाठ कर रहा है और दूसरा धीरे-धीरे बोल रहा है तो उसकी ध्वनि दब जाती है अतः शब्द का स्पर्श नहीं मानना गलत है। आपने 'चक्ष आदि से दिखना चाहिए' इत्यादि दोष दिये हैं वे सभी दोष गंध परमाणओं मेंभी मानने पड़ेंगे। क्योंकि गंध परमाणु भी पुद्गल की पर्याय हैं वे भी नहीं दीखते हैं यदि आप कहें कि गंध परमाणु अदृश्य हैं अतः चक्षु इन्द्रिय से नहीं देखे जाते हैं पुनः शब्दों को भी तथैव मानों क्या बाधा है? पवन से प्रेरित होने पर उन शब्दों का विस्तृत होना आदि मानों तो गंध परमाणु में भी मानना पड़ेगा। भित्ति आदि से परमाणुओं का प्रतिघात प्रसिद्ध है तथैव शब्दों का भी प्रतिघात प्रसिद्ध है । जो आपने कहा कि स्कंधरूप से परिणत मूर्तिमान शब्द परमाणुओं के द्वारा श्रोता का कान पूर्णतया भर जायेगा एवं पौद्गलिक शब्द एक ही श्रोता के कान में प्रविष्ट हो जावेंगे पुनः उसी योग्य देश में स्थित अन्य श्रोताओं को कुछ भी शब्द सुनाई नहीं पड़ेंगे इत्यादि दोष तो आपके गंध परमाणुओं में भी आ जावेंगे। वे भी गन्ध परमाणु नाक में भर जावेंगे तो स्वास लेना ही कठिन हो जावेगा एवं वे नाक में भी घुस जावेंगे तो अन्य किसी सूंघने वाले को कुछ भी गन्ध नहीं आ सकेगी इस पर नैयायिक ने कहा कि हमारे यहाँ ऐसा माना है कि सदश परिणाम वाले गन्ध परमाणु सब तरफ फैल जाते हैं अतः उक्त दोष नहीं आते हैं । यदि समान परिणाम वाले गंध परमाणु सब तरफ फैल जाते हैं अतः उक्त दोष नहीं आते हैं तब तो समान परिणाम वाले शब्द परमाणु भी नाना दिशाओं में फैल जाते हैं अतः एक श्रोता को ही सुनाई देवें इत्यादि दोष नहीं आते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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