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अद्वैतवादियों ने अविद्या से प्राय: सुख-दुःख, पुण्य-पाप और इहलोक - परलोक को स्वीकार किया ही है । किन्तु ये सब एकांतवादी दुराग्रही है अतः इनके यहाँ किसी भी तत्व की सिद्धि असम्भव है ।
सांख्य सभी तत्वों को भावरूप ही मानता है उसके यहाँ अभाव या विनाश नाम की कोई चीज नहीं है उसका कहना है कि मिट्टी में घट विद्यमान है, कुम्हार, दण्ड, चाक आदि निमित्तों से वह पट आविर्भूत हुआ है न कि उत्पन्न कुम्हार चाक आदि दीपक की तरह ज्ञापक निमित्त हैं कारक निमित्त नहीं हैं इत्यादि आचार्य कहते हैं कि यदि 'अभाव' को नहीं माना जायेगा तो प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव इतरेतराभाव और अत्यंताभाव इन चारों अभावों का लोप हो जायेगा जो कि सर्वया विरुद्ध है। इन अभावों का लक्षण देखिये
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प्रागभाव आदि का वर्णन
भावेकांत पदार्थानामभावानामपन्हवात् । सर्वात्मकनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥१॥
सांख्य एकांत से पदार्थों को भावरूप ही मानता है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि सभी पदार्थों को भावरूप ही मानने पर तो अभावों का लोप हो जायेगा । अभाव के चार भेद हैं- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव प्रागभाव को नहीं मानने पर तो सभी कार्य अनादि हो जायेंगे। प्रध्वंस धर्म का लोप करने पर सभी अनंत हो जायेंगे । इतरेतराभाव के अभाव में सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे तथा अत्य ताभाव के न मानने के सभी पदार्थ अस्वरूप - अपने स्वभाव से शून्य हो जायेंगे ।
कार्य का उत्पन्न होने के पहले न होना प्रागभाव है। जैसे—घट बनने के पहले मिट्टीरूप कारण में घट रूप कार्य का अभाव है वह प्राक् — पहले अभाव न होना प्रागभाव है । द्रव्य की अपेक्षा प्रागभाव अनादि है और पयार्य की अपेक्षा आदि है घट बनाने के लिये मिट्टी के पिंड को थाक पर रखकर घुमाया, उसकी स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायें बनीं उनमें जिस क्षण के बाद ही घट बनने वाला है उस क्षण को ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से प्रागभाव कहते हैं इसके पूर्व पूर्व पर्यायों को भी प्रागभाव कहते हैं किंतु अन्तिम क्षण की पर्याय का विनाश होने पर घट बनता है इसलिये प्रागभाव का अभाव होकर घट बनता है। यदि मिट्टी में घट का प्रागभाव न माने तो घटद्रव्य अनादिकाल से मिट्टी में बना रहेगा । प्रागभाव के न मानने पर कार्य - द्रव्य अनादि हो जायेंगे अतः प्रागभाव मानना जरूरी है ।
यदि प्रध्वंस को न मानें तो घट आदि कार्यों का कभी भी नाश नहीं होगा पुनः वे ऐसा नहीं है। विद्यमान घट में प्रध्वंसाभाव का अभाव करके अर्थात् घट का प्रध्वंस करके इसलिये प्रध्वंसाभाव भी वास्तविक है ।
एक पर्याय का दूसरी पर्याय में न होना इतरेतराभाव है जैसे— पुद्गल को पुस्तक पर्याय में चौकी पर्याय का अभाव है, जीव की मनुष्य पर्याय में देव पर्याय का अभाव है। यदि इस इतरेतराभाव को न माना जाये तो एक मनुष्य पर्याय में देव, नारक आदि पर्यायें आ जायेंगी । पुनः सभी पदार्थ सभी स्वरूप हो जावेंगे अतः इतरेतराभाव भी मान्य है ।
एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अभाव अत्यंताभाव है । जैसे- जीव द्रव्य पुद्गलरूप नहीं होता है, पुद्गल जीवरूप नहीं होता है, सांख्यमत बौद्ध आदि मतरूप नहीं होता है इत्यादि रूप से यदि अत्यंताभाव को नहीं मानेंगे तो भी वस्तुयें पर स्वभाव के मिश्रण हो जाने से अपने स्वभाव से शून्य हो जायेंगी तो वे अवस्तु हो जायेंगी अतः यह आवश्यक है
भावार्थ - जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति होने वह प्रागभाव है। जिसके होने
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अनंत हो जायेंगे किंतु कपाल उत्पन्न होते हैं
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