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________________ संसार के कारण की समीक्षा ___ सांख्यों ने मिथ्याज्ञान मात्र को ही संसार का कारण माना है । सो ठीक नहीं है । क्योंकि मिथ्याज्ञान का अभाव हो जाने पर भी राग आदि दोषों का अभाव न होने से संसार का अभाव नहीं होता है। यह बात स्वयं सांख्यों ने भी मान ली है। हम जैनों को मान्य संसार के कारण आगम में प्रसिद्ध है "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंध हेतवः" मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच बंध के कारण हैं। बंध से ही संसार होता है अत: बंध के कारण ही संसार के कारण माने गये हैं। किन्हीं का कहना है कि संसार के कारण मिथ्यात्व आदि अनादिकालीन हैं अत: ये निर्हेतुक हैं। किन्तु ऐसी बात नहीं है यद्यपि ये संसार के कारण अनादि हैं फिर भी अहेतुक (अकारणक) नहीं हैं। इनके कारण द्रव्य कर्म मौजूद हैं, तथा द्रव्य कर्म के कारण ये भाव कर्म हैं इन दोनों में परस्पर में कार्य-कारणभाव पाया जाता है। इसीलिये इन मिथ्यात्व आदि कारणों का सम्यग्दर्शन आदि कारणों से विनाश भी हो सकता है अन्यथा निर्हेतुक का विनाश होना असम्भव ही हो जाता। इस प्रकार से आप अर्हन्त भगवान के शासन में मोक्ष और मोक्ष के कारण तथा संसार और संसार के कारण ये चार तत्त्व अबाधित रूप से सिद्ध हैं अत: आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी सिद्ध हैं और इसीलिये आप निर्दोष परमात्मा हैं यह बात सिद्ध हो जाती है। ये छह कारिकायें अष्टसहस्री के प्रथम भाग में आई हैं । यहाँ तक उन छह कारिकाओं का अभिप्राय है। आगे सातवीं कारिका से लेकर तेईस कारिका तक इस द्वितीय भाग में हैं। उन्हीं का यहाँ यह सारभूत प्रकरण है जिनशासन ही अमृत है-हे भगवन् ! अपने शासनरूपी अमृत से जो बहिर्भूत हैं और “मैं आप्त हूँ" इस प्रकार अभिमान से दग्ध हैं। उन एकांतवादियों का शासन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित है। जैसे कि-सांख्य कहता है कि सुखादि अचेतन हैं क्योंकि वे उत्पन्न होते हैं। किन्तु जैनाचार्य सुख ज्ञान आदि को चैतन्य आत्मा में ही मानते हैं अन्यत्र नहीं और प्रत्येक द्रव्य को उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक मनाते हैं । बौद्ध कहता है कि वर्ण आदि परमाणु ही निर्विकल्पज्ञान में झलकते हैं वे ही हैं स्कंध नाम की कोई चीज नहीं है। किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म हैं वे सर्वज्ञ के अथवा मनः पर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी के ही ज्ञान का विषय हो सकते हैं अन्य मति, श्रुतज्ञान के विषय नहीं हो सकते हैं । दो तीन चार से लेकर अनंतानंत परमाणुओं का मिलकर स्कंध बनता है उसमें भी कुछ स्कंध अचाक्षुष हैं । शब्दादि स्कंध भी दृष्टि के विषय नहीं हैं मात्र चक्षु इंद्रियगम्य स्थूल स्कंध ही अपने ज्ञान में झलकते हैं और ये कल्पनामात्र भी नहीं हैं। चार्वाक भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है किन्तु चैतन्य तत्त्व अनादि निधन है। ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्म से ही चेतन अचेतन की उत्पत्ति मानता है किन्तु सर्वथा चेतन अचेतन द्रव्य अपनी सत्ता को लिये हुये पृथक्-पृथक् ही हैं । हे नाथ ! नित्य अथवा अनित्य आदि एकांत मान्यताओं के दुराग्रही स्व और पर के वैरी मिथ्यादृष्टि जनों में किसी के यहाँ भी पुण्यपापादि क्रियायें एवं परलोक आदि भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं। यदि कोई कहे कि शन्य वादियों ने और अद्वैत वादियों ने तो स्वयं ही पुण्य-पाप परलोक आदि को माना ही नहीं है अन्यथा उनका शून्यवाद नहीं टिकेगा और द्वैतवाद आ जायेगा। आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उन लोगों ने भी पुण्य पाप आदि को और परलोक को भी संवृति (कल्पना) से माना है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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