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________________ ( २१ ) विवक्षित-कहा जाता है तब नित्य धर्म अविवक्षित-गौण हो जाता है। ये अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य आदि धर्म यद्यपि परस्पर विरोधी दिखते हैं लेकिन प्रत्येक वस्तु में पाये ही जाते हैं। प्रश्न-एक वस्तु में प्रत्यक्षादि से विरुद्ध भी विधि प्रतिषेध कल्पना कर लेना चाहिये ? उत्तर-नहीं, क्योंकि सूत्र में 'अविरोधेन' पद है जिसका अर्थ है प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम आदि से अविरुद्ध धर्मों में ही सप्तभंगी घटित करना । प्रश्न-प्रत्येक वस्तु में अनंत धर्म हैं अतः 'अनंतभंगी' हो जावें सात ही भंग क्यों ? उत्तर- प्रत्येक वस्तु के अनंत धर्मों में से प्रत्येक धर्म में सप्तभंगी घटित होती है, इसलिये अनंतभंगी नहीं होंगी। 'हा होगा। 'भंग सात ही क्यों ?' शिष्यों के द्वारा उतने ही प्रश्न होते हैं । 'सात ही प्रश्न क्यों ?' तो सात प्रकार की ही जिज्ञासा होती है। जिज्ञासा सात प्रकार की ही क्यों?' तो सात प्रकार का ही संशय होता है। 'संशय सात प्रकार का ही क्यों ?' तो उस संशय के विषयभूत वस्तु के धर्म सात प्रकार के ही हैं। इस प्रकार से सप्तभंगी से सिद्ध वस्तु ही अर्थ क्रियाकारी है। अन्यथा वह वस्तु-अवस्तु-आकाश पुष्पवत् सर्वथा ही अभावरूप हो जायेगी अतः हे भगवन् ! सभी प्रकार के विरोध आदि दोषों से रहित आपका 'स्याद्वाद शासन' जयवंत होवे । अष्टसहस्त्री ग्रन्थराज का महत्त्व इस अष्टसहस्री ग्रन्थ में श्रीसमंतभद्राचार्य ने दश अध्यायों में मुख्यरूप से दश प्रकार के एकांत का निरसन करके स्याद्वाद की सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित किया है। उन एक-एक परिच्छेद में मुख्य-मुख्य एकांतों के खण्डन में उभयकात्म्य तथा अवाच्य का खण्डन करते हये "विरोधान्नोभयकात्म्यं" स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतकांतेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥ इस कारिक को प्रत्येक अध्याय में लिया है अतः यह कारिका दस बार आ गई है । प्रथम अध्याय में मुख्यता से भावैकांत अभावकांत का खंडन है पुनः उभयैकात्म्य का खंडन एवं अवाच्य का खण्डन करते हुये "विरोधान्नोभयकात्म्यं" इत्यादि कारिका दी गई है । पुनः कथंचित् भाव और कथंचित् अभाव को सिद्ध करके सप्तभंगी प्रक्रिया घटित की है तथा इस भाव अभाव के खण्डन में अनेक अन्य विषय भी स्पष्ट किये हैं । द्वितीय अध्याय में एकत्व पृथक्त्व को एकांत से न मानकर प्रत्येक वस्तु कथंचित् एकत्व-पृथक्त्वरूप ही है यह प्रगट किया है । तृतीय परिच्छेद में नित्यानित्य को दिखाया है । चतुर्थ में भेदाभेदात्मक वस्तु को बताया है, पांचवें में कथंचित आपेक्षिक अनापेक्षिकरूप वस्तु को सिद्ध किया है। पूनः छठे में हेतवाद और सिद्ध करके सातवें में अन्तस्तत्त्व-बहिस्तत्त्व का अनेकांत बताया है। आठवें में देव-पुरुषार्थ को स्याद्वाद से प्रगट करके नवमें में पुण्य-पाप का अनेकांत उद्योतित किया है। दसवें में ज्ञान-अज्ञान से मोक्ष और बन्ध की व्यवस्था को प्रकाशित किया है तथा स्याद्वाद और नयों का उत्तम रीति से वर्णन किया है। तात्पर्य यही है कि इस अष्टसहस्री ग्रन्थ में जिस रीति से स्याद्वाद का वर्णन प्रत्येक स्थान पर किया गया है वैसा वर्णन अन्यत्र न्याय ग्रन्थों में कहीं पर भी नहीं है। प्रत्येक अध्याय में सप्तभंगी प्रक्रिया बहुत ही अच्छी मालूम पड़ती है। अन्त में आचार्य ने यह बताया है कि मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों के लिये यह आप्त मीमांसा-सर्वज्ञ विशेष की परीक्षा की गई है। क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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