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________________ १४० ] अष्टसहस्री [ कारिका १० व्यञ्जका, न पुनश्चक्रादयोपीति, ते वा घटादेः कारका, न पुनः शब्दस्य ताल्वादयोपीति । न हि व्यञ्जकव्यापृतिनियमेन व्यङ्गय सन्निधापयति । सन्निधापयति च ताल्वादिव्यापृतिनियमेन' शब्दम् । ततो नासौ ताल्वादीनां व्यङ्गयश्चक्रादीनां घटादिवत् । नायं दोषः सर्वगतत्वावर्णानामित्यपि वातं, प्रमाणबलायातत्वाभावात्, अन्यत्रापि तथाभावानुषङ्गात् । शक्यं हि वक्तुं, घटादीनां सर्वगतत्वाच्चक्रादिव्यापारान्नियमेनोपलब्धिआप मीमांसक इन दोनों बातों को स्वीकार करने को तैयार नहीं हो अतः यदि दूसरा विकल्प लेवो कि वह अभिव्यक्ति शब्द से भिन्न है। इस पर भी प्रश्न होता है कि वह भिन्न अभिव्यक्ति पहले तो असतरूप है, पुरुष प्रयत्न से की जाती है तो वह पुरुष का प्रयत्न होने के पहले शब्द में विद्यमान है या नहीं ? यदि पहले शब्द में नहीं है और पुन: आई तो शब्द पहले न सुनाई देने के स्वभाव वाले थे पीछे अभिव्यक्ति के होने पर सुनाई देने लगे अतः अनित्य हो गये। यदि अभिव्यक्ति पहले ही थी तो अभिव्यक्ति के पहले ही शब्द सुनाई देना चाहिये था। यदि आप कहें कि वह अभिव्यक्ति शब्द का धर्म न होकर पुरुष का धर्म है तब तो वह अभिव्यक्ति भी पुरुष के समान नित्य हो जावेगी। यदि मूल का दूसरा प्रश्न लेवो कि अभिव्यक्ति सुनाई देने की योग्यतारूप है तो उसमें भी दो प्रश्न उठते हैं कि योग्यता शब्द से अभिन्न है या भिन्न ? यदि अभिन्न है तो वह शब्द के समान नित्य होने से पुरुष के द्वारा ताल्वादि से नहीं की जावेगी यदि शब्द से भिन्न है तब तो वह या तो श्रोत्रेन्द्रिय का स्वभाव रहेगी या आत्मा का स्वभाव हो जावेगी ? यदि श्रोत्रेन्द्रिय का स्वभाव कहो तो मीमांसक के यहाँ श्रोत्रेन्द्रिय आकाशरूप है और आकाश नित्य है। अतः श्रोत्रेन्द्रिय की धर्मरूप योग्यता भी शाश्वत नित्य हो जावेगी। यदि आत्मा का धर्म कहो तो भी आत्मा भी तो आपके यहाँ नित्य ही है अतः उसका धर्म-अभिव्यक्ति भी नित्य ही रहेगी। यदि आप कहें कि वह श्रवणज्ञानोत्पत्ति और उसकी योग्यता दोनों ही शब्द से भिन्नाभिन्न रूप हैं तो भाई ! आप तो कथंचित पद्धति को मान अत: भिन्न पक्ष एवं अभिन्न पक्ष दोनों ही पक्षों के दोष आपके ऊपर आ जावेंगे। पुन: उस अभिव्यक्ति का प्रागभाव बन ही नहीं सकेगा। यदि जबरदस्ती प्रागभाव मानोगे तो भी जैसे शब्द नित्य हैं वैसे ही श्रोत्रेन्द्रिय और आत्मा भी नित्य हैं इन तीनों के हो प्रागभाव मानना पड़ेगा और तीनों को ही पुरुषप्रयत्न के द्वारा मानना पड़ेगा। यदि आप मूल के तीसरे विकल्प शब्द के आवरण का दूर होना मानते हो तो भाई !! होगा कि वह आवरण शब्द से भिन्न है अभिन्न ? यदि अभिन्न है और पुरुष के ताल्वादिव्यापार से 1 स्याद्वादी मीमांसं प्रति अनुमानं रचयति । शब्द: पक्ष: ताल्वादीनां व्यङ्गयो न भवति, किन्तु व्युत्पाद्यो भवतीति साध्यो धर्मः । ताल्वादिभिनियमेन सन्निधाप्यत्त्वात् । यद्येषां नियमेन सन्निधाप्यं न तत्तेषां व्यङ्गयम् । यथा चक्रादीनां घटादिः । सन्निधापयति च ताल्वादि व्यापतिनियमेन शब्दम् । तस्मान्नासौ तात्वादीनां व्यङ्गय । (दि० प्र०) 2 नहि व्यञ्जकव्यापृतिनियमेन व्यङ्गय सन्निधापयति इत्यत्र नियमो नास्ति यतः । सन्निधापयति च ताल्वादिव्याप्रतिनियमेन शब्दमित्यत्र चास्ति नियमो यतः। (दि० प्र०) 3 आह-- मीमा० ताल्वादीनां वर्णव्यङ्गया एव न तु व्युत्पाद्या इत्ययं दोषो न कुतः । वर्णः सर्वगतानित्यायतः स्या० हे मीमांसक इत्यपि ते वचः फल्गुप्रायं । कुतः प्रमाणाभावात् । तथाऽन्यत्र सांख्यमते घटादीनामपि सर्वगतत्त्वप्रसंगात् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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