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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद रिति । इष्टत्वाददोषोयं कापिलानामिति चेन्त, कारणव्यापारेष्वपि चोद्यानिवृत्तः, चक्रादीन्यपि कारणानि स्वव्यापाराणां नियमेन सन्निधापकान्यभिव्यञ्जकानि भवन्तु, तेषां सर्वगतत्वादेवेति चोद्यस्य निवर्तयितुमशक्यत्वात् । एतेनावस्था प्रत्युक्ता। स्वव्यापारोत्पादने हि कारणानां' व्यापारान्तराणि कल्पनीयानि तथा तदुत्पादनेपीत्यनवस्था स्यात्, न पुनः स्वव्यापाराभिव्यक्तौ, तत्सन्निधिमात्रादेव तत्सिद्धेरन्यथा व्यञ्जककारकयोर दूर होता है तब तो शब्द अनित्य हो गये। यदि भिन्न है तो शब्दों का तो कुछ होगा नहीं अतः वे शब्द कभी भी सुनाई नहीं देंगे। तथा चौथे विकल्प “विशेषता का होना अभिव्यक्ति है" इसमें भी ये ही विकल्प उठते रहेंगे। इन तृतीय, चतुर्थ विकल्परूप अभिव्यक्ति को शब्द, पुरुष और श्रोत्रेन्द्रिय का स्वभाव कहोगे तो ये दोनों अभिव्यक्तियाँ भी नित्य ही रहेंगी पुनः पुरुष के ताल्वादि से इनकी प्रकटता हो नहीं सकेगी। जबरदस्ती मानोगे तो शब्द, पुरुष और श्रोत्रेन्द्रिय को भी पुरुषप्रयत्न से ही मानना होगा। यदि आप यही हठ पकड़े रहेंगे कि पुरुष के ताल्वादिप्रयत्न से शब्दों की प्रगटता ही की जाती है, नित्य शब्द, आत्मा एवं कर्णेन्द्रिय नहीं किये जाते हैं, तब तो ज्ञात होता है कि आप दुराग्रहरूपी पिशाच से ग्रसित ही हो गये हैं। हम जैनों के यहाँ तो २२ प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं में एक भाषावर्गणा भी है वह संपूर्ण लोक में ठसाठस भरी हुई है । पुरुष के वीतिराय और मतिश्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नाम कर्म के उदय से पुरुष के प्रयत्न के द्वारा वे उत्पन्न हो जाती हैं। एवं शब्द वर्गणायें पौद्गलिक हैं "शब्द बंध सौम्य .... ...." इत्यादि सूत्र से वे पुद्गल की पर्यायें हैं अतः श्रोत्रंद्रिय या पुरुष का धर्म नहीं हैं। इसलिये घट, पट, आत्मा, आकाशादि के समान शब्द विद्यमानरूप हैं एवं जैसे अंधकार से घट पट आदि ढक जाते हैं वैसे ही शब्द आवारक वायु से ढके हुये हैं। अभिव्यंजक वायुप्रकट करने वाली वायु से (पुरुष के मुख के बाहर बोलते समय जो वायु निकलती है उससे) प्रकट हो जाते हैं यह कल्पना निःसार है। __ [सांख्य के द्वारा मान्य अभिव्यक्ति पक्ष का निराकरण] इसी प्रकार से जैसे कि आपने शब्द की अभिव्यक्ति मानी है, तथैव कपिलमतानुसारी सांख्यों के यहाँ भी घटादिकों की प्रागभावरूप अभिव्यक्ति ही चक्रदण्डादि के द्वारा की जाती है, किन्तु घटादि नहीं किये जाते हैं क्योंकि वे तो पहले भी सत्रूप ही थे यह भी वर्णन करना शक्य होगा क्योंकि यहाँ आगे कहे हुये अर्थ में भी "कोई भी विशेषहेतु भेद को करने वाला नहीं है कि ताल्वादि शब्द के व्यञ्जक हैं किन्तु चक्रदण्डादि घट के व्यञ्जक नहीं हैं, कारक ही हैं।" अर्थात् तालु आदि शब्द के व्यञ्जक ही हैं कारक नहीं हैं। पुनः चक्रदण्डादिक घट के कारक ही हैं व्यंजक नहीं हैं, ऐसा भेद प्रगट करने वाला कोई भी हेतु नहीं है। 1 स्वव्यापाराणाम् । (दि० प्र०) 2 एतेनानवस्थाप्युक्ता इति पा० । (दि० प्र०) 3 एतेन चोद्याऽनिवृत्तिदूषणप्रतिपादनेनानवस्था दूषणमप्युक्तम् । तदेवाह । कारणानि चक्रादीन्यन्यव्यापारानाश्रित्य स्वव्यापारानुत्पादयन्ति । ते च व्यापाराऽन्यान् व्यापारान् ते चान्यान् इत्यनवस्था । (दि० प्र०) 4 कारणस्य । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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