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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १३६ नित्यत्वोपगमात्कथं प्रागभावः संभवेत् ? संभवे वा प्रयत्नकार्यत्वप्रसङ्गः अभिव्यक्तिवत् । पुरुषप्रयत्नेन अभिव्यक्तिः प्रागसती क्रियते, न पुनस्तत्स्वरूपः' शब्दः पुरुषः श्रोत्रं चेति स्वरुचिविरचितदर्शनप्रदर्शनमात्रम् । [ सांख्याभिमताभिव्यक्तिपक्षस्य निराकरणं ] एवं हि कपिलमतानुसारिणां घटादेरभिव्यक्तिः प्रागसती चक्रदण्डादिभिः क्रियते न पुनर्घटादिरित्यपि शक्यं प्रदर्शयितुम् । यतोत्र न कश्चिद्विशेषहेतुस्ताल्वादयो जैन-"तब तो विशेषाधान-विशेषता का होना भी उसी प्रकार से प्रश्न का विषय है, क्योंकि कर्म (शब्द), कर्ता (आत्मा) और करण (श्रोत्र) में प्रागभाव का अभाव है," क्योंकि आवरण का दूर होना और विशेषता का होना ये दोनों ही शब्द श्रोत्रेन्द्रिय और पुरुष के स्वभाव हैं। इन शब्द, श्रोत्र और पुरुष को आप याज्ञिकजनों ने भी नित्यरूप से स्वीकार किया है, न कि केवल सांख्यों ने ही । पुनः उनमें प्रागभाव कैसे संभव होगा ? अथवा यदि उनमें आप प्रागभाव को मानें तब तो अभिव्यक्ति के समान उस शब्द को भी प्रत्यनपूर्वक करने का प्रसंग आ जावेगा। यदि आप कहें कि अभिव्यक्ति तो प्राक् असत्रूप है और पुरुषप्रयत्न के द्वारा की जाती है, किन्तु उसस्वरूप शब्द पुरुष और श्रोत्रंद्रिय प्रयत्नपूर्वक नहीं किये जाते हैं, सो आपका यह सभी कथन स्वरुचिविरचितदर्शन का प्रदर्शनमात्र है। विशेषार्थ-मीमांसकलोग शब्द को नित्य, सर्वगत, निरंश और एक मानते हैं उनका कहना है कि शब्द तो सर्वथा नित्यरूप ही हैं परन्तु वे सदा इसलिये सुनाई नहीं देते हैं कि उनकी अभिव्यक्तिप्रकटता सर्वदा नहीं रहती है, पुरुष के ताल्वादि प्रयत्न से शब्दों की प्रगटता की जाती है शब्द नहीं किये जाते हैं। ___ इस पर जैनाचार्यों ने उस अभिव्यक्ति के चार अर्थ किये हैं एवं चारों में दोष दिखाया है। अर्थात् वह शब्दों की प्रकटतारूप अभिव्यक्ति, श्रवणज्ञानोत्पत्तिरूप-सुनाई देनेरूप है, या श्रवणज्ञानोत्पत्ति की योग्यता रूप-सुनाई देने की योग्यता रूप है, या आवरणविगम रूप-शब्दों के ढकने वाली वायु के दूर होने रूप है या विशेषता के होनेरूप-शब्दों में सुननेरूप विशेषता के होनेरूप है ? यदि सुनाई देनेरूप प्रथम पक्ष लेवो तो वह सुनाई देनेरूप शब्द की प्रकटता शब्द से अभिन्न है या भिन्न ? यदि अभिन्न कहो तब तो शब्द नित्य हैं वैसे ही वह प्रकटता भी नित्य ही हो जावेगी। अथवा प्रकटता पुरुषकृत अनित्य है तो शब्द भी उससे अभिन्न होने से पुरुषकृत अनित्य हो जावेंगे परन्तु 1 आवरणविगमविशेषाधाने द्वे शब्दादीनां स्वरूपे । (दि० प्र०) 2 शब्दपुरुषश्रोत्राणां क्रियमाणावरणविगमविशेषाधानयोरभिव्यक्तेस्तेभ्योभिन्नत्त्वात् । आशंक्य । (दि० प्र०) 3 साऽभिव्यक्तिः स्वरूपं यस्य शब्दादेस्सतस्वरूपः । बसः । (दि० प्र०) 4 अरे मीमांसक ! भवदुक्तन्यायेनानेन कपिलमतमपि निराकुलं स्यादित्यभिप्रायं मनसि कृत्वाहः । एवं हीति । (दि० प्र०) 5 कुतः यस्मात् कारणात् । ( ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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