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________________ १३८ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० श्रवणज्ञानोत्पत्तिस्तद्योग्यता चाभिव्यक्तिः शब्दादिति मतं तदप्यसत्यं, पक्षद्वयोक्तदोषानुषङ्गात् सर्वथा तस्याः प्रागभावायोगात्, तद्योगे वा शब्दवदेव श्रोत्रप्रमात्रोरपि प्रागसतोः प्रयत्नेन करणप्रसङ्गादन्यथा' स्वरुचिविरचितदर्शनप्रदर्शनमात्रप्रसक्तेः । आवरणविगमोभिव्यक्तिरिति चेत् तदावरणविगमः प्राविकमभूत् ? भूतौ वा किं यत्नेन ? विशेषस्याधानमभिव्यक्तिरिति चेन्ननु विशेषाधानमपि तागेव, कर्मकत करणानां प्रागभावाभावात्। आवरण विगमविशेषाधानयोहि शब्दपुरुषश्रोत्राणां स्वरूपत्वे तेषां याज्ञिकरपि मीमांसक-वह श्रवणज्ञानोत्पत्ति एवं उसकी योग्यता इन दोनों रूप अभिव्यक्ति शब्द से भिन्नाभिन्नरूप है। जैन--यह कथन भी असत्य ही है, क्योंकि श्रवणज्ञानोत्पत्तिरूप पक्ष में एवं उसकी योग्यतारूप पक्ष इन दोनों में ही पक्ष में दिये गये दोषों का प्रसंग आ जावेगा, क्योंकि सर्वथा-शब्द से भिन्नाभिन्न प्रकार से उन दोनों ही अभिव्यक्तियों में प्रागभाव का अभाव है। अथवा यदि आप उन दोनों में प्रागभाव का योग मानोगे तब तो शब्द के समान ही श्रोत्र-कर्णेन्द्रिय और प्रमाता-आत्मा इन दोनों का भी प्रागभाव मान करके इनको भी प्रयत्नपूर्वक करने का प्रसंग आ जावेगा। अन्यथा स्वरुचिविरचितदर्शनमात्र का ही आप प्रदर्शन करते हैं न कि वास्तविकसिद्धांत का । भावार्थ-शब्द श्रोत्र और प्रमाता नित्य हैं, उनके धर्म को अभिव्यक्ति कहते हैं । वह अभिव्यक्ति सके नित्य होने से उसमें प्रागभाव का अभाव है। यदि आप उस अभिव्यक्ति में प्रागभाव का सद्भाव मानों तब तो शब्द श्रोत्र और प्रमाता में भी प्रागभाव के होने से उनको भी प्रयत्नपूर्वक करने का प्रसंग प्राप्त होगा जो कि आपको अनिष्ट है क्योंकि आप शब्द, श्रोत्र एवं आत्मा को सर्वथा नित्य ही मानते हैं। तथा च यदि आप कहें कि शब्द, श्रोत्र और प्रमाता इनमें प्रागभाव होते हुये भी अभिव्यक्ति ही यत्न से की जाती है न कि ये तीनों-शब्द, श्रोत्र और प्रमाता - आत्मा, तब तो आप अपने मनगढंत सिद्धांत का ही पोषण करते हैं न कि वास्तविक । मीमांसक-शब्द के आवरण का विगम-दूर हो जाना ही अभिव्यक्ति है। जैन-"यदि ऐसी बात है तब तो उस शब्द में आवरण का विगम तालआदिक व्यञ्जक व्यापार के पहले था क्या ? और यदि था तो पुनः यत्न से क्या प्रयोजन ?” अर्थात् तालु आदि व्यापार शब्द के कारककारण हैं व्यंजककारण नहीं हैं, यही बात सुघटित होती है। मीमांसक-शब्द में विशेषता (श्रूयमाणत्वरूपता) का होना ही अभिव्यक्ति है । 1 तयोस्तद्भिन्नत्वपक्षे तयोः श्रोत्रप्रमातृधर्मत्वसंभवेन तद्वच्छोत्रप्रमात्रोरपि प्रागसत्त्वसंभवात्प्रयत्नेन करणप्रसंग इति भावः । (दि० प्र०) 2 कारणम् । (दि० प्र०) 3 शब्दपुरुषश्रवणानाम् । (दि० प्र०) 4 शब्दपुरुषश्रोत्राणां मीमांसकैरपि । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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