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________________ अष्टसहस्री [ कारिका १० संप्रति 'घटादेः शब्दादेश्च प्रागभावप्रध्वंसाभावनिह्नववादिन' प्रति दूषणमुपदर्शयन्तः कारिकामाहुः । 'कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य 'निह्नवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य 'प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१०॥ [ चार्वाकेण प्रागभावस्य निराकरणं जैनाचार्येण तस्य व्यवस्थापनञ्च ] 'कार्यस्यात्मलाभात्प्रागभवन11 प्रागभावः । स च तस्य 12प्रागनन्तरपरिणाम13 एवेत्येके14 उत्थानिका-अब घटादिक और शब्दादिक में प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव का निन्हव करने वाले वादियों के प्रति दूषण को दिखलाते हये आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी कारिका को कहते हैं( यहाँ विद्यानंदि सूरिवर्य के अभिप्राय से चार्वाक के प्रति कथन है एवं भट्टाकलंक देव के अभिप्राय से सांख्य और मीमांसक के प्रति कथन है।) कारिकार्थ-हे भगवन् ! यदि प्रागभाव का लोप करेंगे तब तो संपूर्ण कार्य अनादि सिद्ध हो जावेंगे और यदि प्रध्वंसाभाव का अभाव करेंगे तब तो सभी वस्तु की पर्यायें अनन्तपने को प्राप्त हो जावेंगी ॥१०॥ [ चार्वाक के द्वारा प्रागभाव का निराकरण एवं जैनाचार्य द्वारा प्रागभाव का व्यवस्थापन किया जाता है। ] जैन-कार्य का आत्मलाभ-अपनी उत्पत्ति के पहले न होना प्रागभाव है। और वह कार्योत्पत्ति के पहले का अनन्तर परिणाम (अंतिम परिणाम) ही है। चार्वाक-ऐसा न मानने पर तो आप जनों के यहाँ उसके पहले अनादि परिणाम सन्तति में कार्य के सद्भाव का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि प्राक्-अन्तिम परिणाम लक्षण प्रागभाव का वहाँ पर अभाव है। भावार्थ-घट की उत्पत्ति के पूर्व मृत्पिण्ड, शिवक, छत्रक, स्थास, कोश, कुशूल आदि अनेक पर्यायें हैं यानी कुंभकार ने चाक पर मृत्पिण्ड को घड़ा बनाने के लिये रखा, चाक घूम रहा है । उसकी जितनी भी पर्याय हैं वे प्रागभावरूप नहीं है किन्तु घटोत्पत्ति की अनन्तर समयवर्ती पर्याय जो कि 1 पटादेः । (ब्या० प्र०) 2 आत्मादेः । (ब्या० प्र०) 3 विद्यानन्दिसूरिवर्याभिप्रायेण चार्वाकं प्रति, भट्टाकलङ्कदेवाभिप्रायेण तु सांख्यं मीमांसकं च प्रति । 4 घटादिपर्यायः । (दि० प्र०) 5 कार्यस्यात्मलाभात्प्रागभवनं प्रागभावस्तस्य । (दि० प्र०) 6 आलापे । (दि० प्र०) 7 निह्नवे। 8 कार्यद्रव्यमेव । (दि० प्र०) 9 इतश्चार्वाक: प्रत्यवतिष्ठते। 10 घटलक्षणस्य । (ब्या० प्र०) 11 व्यक्त्यभावो न तु शक्त्यभावः । (ब्या० प्र०) 12 कुशूल:, मृत्पिण्डः । (ब्या० प्र०) 13 प्राक्परिणाम इत्युक्तेत्यन्तव्यवहितपूर्वपरिणामस्यापि प्रागभावत्वं स्यादित्यनन्तरेत्युक्तम् । 14 जैनाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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