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________________ भाव एकान्त का निरास ] प्रथम परिच्छेद [ १०५ ___आप सांख्य के यहाँ प्रकृति के दो भेद हैं-व्यक्त, अव्यक्त । व्यक्त के महान अहंकार आदि कार्य होते हैं, अव्यक्त को प्रधान कहते हैं। प्रकृति के २४ एवं पुरुष तत्व मिलाकर सांख्यों ने २५ तत्त्व मात्र अस्तिरूप माने हैं। उनमें व्यक्त और अव्यक्त में इतरेतराभाव का लोप करने पर व्यक्त को अव्यक्तपना आने से सर्वात्मक दोष आ जावेगा । आपके द्वारा मान्य व्यक्त अव्यक्त के भिन्न-भिन्न लक्षण घटित नहीं होंगे। प्रकृति और पुरुष में अत्यंताभाव के न मानने से प्रकृति पुरुष रूप हो जावेगी और पुरुष प्रकृतिरूप हो जावेगा । पुनः सभी वस्तु सर्वात्मक हो जावेंगी। तथा च-- प्रकृति से महान (सृष्टि के अन्त तक रहने वाली बुद्धि) उससे अहंकार, उससे १६ गण तथा उन षोडश में ५ तन्मात्रा से ५ भूत उत्पन्न होते हैं यह सृष्टि का क्रम नहीं बन सकेगा। प्रध्वंसाभाव का अपन्हव करने पर सभी पदार्थ अनन्त हो जावेंगे । अर्थात् आपके यहाँ पृथ्वी आदि ५ महाभूत ५ तन्मात्राओं में लीन होते हैं। पृथ्वी का स्पर्श रस गंध रूप शब्द इन तन्मात्राओं में प्रवेश होता है रसादि में जल का, रूपादि में अग्नि का तथा स्पर्श शब्द स्वरूप तन्मात्रा में वायु का समावेश एवं शब्द में आकाश का समावेश हो जाता है १६ गण का अहंकार में, अहंकार का महान में, महान् का प्रकृति में प्रवेश हो जाता है। प्रध्वंसाभाव के अभाव में यह संहार का क्रम दुर्घट है । अतएव आपके यहाँ सभी वस्तु अपने असाधारण स्वरूप से व्यवस्थित न होने से अस्वरूप हो जावेंगी क्योंकि वस्तु स्वरूप के नियामक चारों ही अभावों का अभाव होने से कुछ भी वस्तु की व्यवस्था नहीं बनेगी । अर्थात् मनुष्य में मनुष्य पर्याय का सद्भाव एवं नरक गति का अभाव धर्म है, यदि नहीं मानोगे तो वह मनुष्य नारकी भी हो जावेगा । “चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्र नाभिधावति" किसी ने कहा कि दही खावो, यदि दही में अन्य वस्तु की अपेक्षा अभाव धर्म नहीं है तब तो वह ऊंट को खाने के लिये क्यों नहीं दौड़ेगा ? अत: आपका भावैकांत ठीक नहीं है। सांख्य-हमारे यहाँ सभी पर्याय प्रधानात्कम ही हैं अतः सर्वात्मक आदि दोषों की हमें चिन्ता नहीं है। जन-तब तो आपके यहाँ प्रकृति एवं पुरुष दोनों सत्रूप ही हैं। उन दोनों को यदि आपने सत्रूप माना तो आप सत्ताद्वैतवादी बन जावेंगे। सत्ताद्वैत में भी चेतनाचेतन भेद अविद्या से ही कल्पित हैं। उन भेदों का लोप आप किस प्रमाण से करते हैं ? क्योंकि प्रत्यक्ष एवं आगम को आपने विधायक ही माना है निषेधक नहीं माना है । तथा अद्वैत को सिद्ध करने में आगम आदि जो भी आप स्वीकार करेंगे उनसे द्वैत का ही प्रसंग आवेगा। योग ने अभाव को तुच्छा भावरूप माना है । यह भी मान्यता गलत है। "न भाव: अभावः" इस नञ् समास के २ अर्थ हैं। पर्युदास प्रतिषेध, प्रसज्य प्रतिषेध । 'अब्राह्मणमानय" कहने से ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रियादि का ज्ञान होना पर्यदास निषेध है, सर्वथा निषेध करने वाला प्रसज्य प्रतिषेध है । सर्वथा निःस्वभाव अभाव जैनों को इष्ट नहीं है प्रत्युत भावान्तररूप ही अभाव इष्ट है । अतः भावकांत श्रेयस्कर नहीं है। उपसंहार-आचार्यों ने यह स्पष्ट किया है कि एकान्त के हठाग्रही जनों के यहाँ पुण्य पापादि व्यवस्था असम्भव है । प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है अतः अनेकान्त धर्म ही निर्दोष है । 99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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