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________________ प्रागभावसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १०७ तेषां तत्पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्यसद्धावप्रसङ्गः । तत्रेतरेतरा भावरूपस्य' तदभावस्योपगमान्नायं दोष इति 1°चेत् तदनन्तरपरिणामेपि12 13तत एव कार्यस्याभावसिद्धेः किमर्थः प्रागभाव: 15परिकल्प्यते ? 16कार्यस्य17 18प्रागभावाभावस्वभावत्वसिध्द्यर्थमिति अन्तिम क्षणरूप है वही घड़े का प्रागभाव है । इसपर चार्वाक ने यह आक्षेप प्रगट किया है कि पुनः घट के अन्तिम क्षण के सिवाय बाकी पूर्व की अनेक पर्यायों में प्रागभाव के न होने से उनमें घटरूप कार्य की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा । और यदि आप जैन ऐसा कहें कि उन अनादि परिणाम सन्तति में इतरेतराभाव रूप अभाव के होने से कार्योत्पत्ति के पूर्व कार्य को अनादिपने का दोष नहीं आ सकता है। अर्थात अनादि पूर्वपरिणाम सन्तति और कार्य का परस्पर में इतरेतराभाव है अतएव उन-उन पूर्व की पर्यायों में घट का उत्पाद संभव नहीं हैं। यदि ऐसी बात है तब तो तदन्तर परिणाम के होने पर भी उसी इतरेतराभाव से ही कार्य का अभाव सिद्ध हो जावेगा पुनः आप जैनों ने किसलिये प्रागभाव की कल्पना की है ? जैन-घट लक्षण कार्य में मृत्पिण्ड लक्षण प्रागभाव का अभाव स्वभाव सिद्ध करने के लिये ही प्रागभाव का कथन है अर्थात् प्रागभाव का अभाव होकर ही कार्य का उत्पाद होता है। चार्वाक–कार्य से पूर्व की पर्याय-अनन्तर मृत्पिण्ड लक्षण से रहित उससे पूर्व-पूर्व की अखिल पर्यायों में कार्यस्वभाव का प्रसंग क्यों नहीं हो जावेगा ? यदि आप ऐसा कहें कि प्रागभाव का अभावस्वभाव समान होने पर भी कोई ही पर्याय कार्यरूप से इष्ट है न कि इतर सभी पर्यायें । यह कथन भी केवल आपका दुराग्रहमात्र ही है। यदि आप जैन ऐसा कहें कि 1 जैनानाम् । 2 तस्मात् प्रागनन्तरपरिणामात्पूर्वा अनादिपरिणामास्तेषां सन्ततिस्तस्याम् । 3 प्रागनन्तरपरिणामात् ये पूर्वपरिणामास्तेषां प्रागभावाभाव स्वभावात्तेषु कार्योत्पत्तिरस्तु इति शंकां निराकरोति तत्रेतरेत्यादिना । (न्या० प्र०) 4 प्रागनन्तरपरिणामलक्षणस्य प्रागभावस्य तत्राभावात् । प्रसङ्गादिति पाठान्तरम् । 5 कार्योत्पत्तिशङ्कामनन्तरोक्त निराकुर्वन्नाह जैनस्तत्रेत्यादि । तत्र अनादिपरिणामसन्तती। 6 (अनादिपूर्वपरिणामसन्ततः कार्यस्य च परस्परमितरेतराभावः । स एव तदभावो विवक्षितकार्याभावस्तस्य)। 7 मृत्पिण्डः घटो न भवति घटो न भवति घटो मृत्पिण्डो न भवति । (ब्या० प्र०) 8 कार्यम् । (दि० प्र०) 9 (कार्यस्यानादित्वलक्षणः)। 10 तहि । (ब्या० प्र०) 11 सोगतः प्राक् । (दि० प्र०) 12 अत्राह सौगतः। तेषां स्याद्वादिनां तत्तस्मात् प्रागनन्तरपरिणामलक्षणप्रागभावात्पूर्वमनादिकाले परिणामः । पर्यायस्तेषां मालायां कार्य भवत् =स्याद्वाद्याह । तत्र कार्यसद्भावे इतरेतराभावलक्षणःप्रागभावोऽस्माभिरभ्युपगम्यते तस्मादयं दोषो नेति चेत् =सौगतः। कार्यानन्तरपरिणामपि तत एव इतरेतराभावादेव कार्यस्याभावः सिद्धयतु किमर्यो निरर्थकः प्रागभावः परिकल्प्यते । (दि०प्र०) 13 इतरेतराभावात् । 14 मृत्पिण्डः । इतरेतराभावरूपस्य कार्याभावस्योपगमादेव । (दि० प्र०) 15 जैनः। 16 घटलक्षणस्य। 17 स्याद्वाद्याह । प्रागभावस्याभावस्वभाव एव कार्यम् । तदर्थं कार्यनिमित्तं प्रागभावः परिकल्प्यते इति चेत=सौगतः एवं सति कार्यादनन्तरलक्षणे न एकेन पूर्वपर्यायेण रहितेषु कार्यात् पूर्वोत्तरसंभूतेषु समस्तपर्यायेषु कार्यस्वभावत्त्वं कथं न प्रसज्येत् । कार्यात्पूर्वोत्तराखिलपरिणामेषु प्रागऽभावाऽभावस्य स्वभावत्वेन कृत्वा समानेपि कश्चन एकोऽभिमतः पर्यायः कार्यम् । न पुनरन्ये पर्याया इत्याग्रहमात्रं स्याद्वादिनः । (दि० प्र०) 18 प्रागभावो, मृत्पिण्डलक्षणः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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