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________________ ७४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ८ तेषामपि कारणस्य कार्यकालप्राप्तौ क्षणभङ्गभङ्गानुषङ्गात्', 'तदप्राप्नुवतस्तत्कृतौ व्यलीक कल्पनाविशेषेण कूटस्थानतिशायनात् । यथैव हि कूटस्थमपरिणामित्वात्क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियायामसमर्थमपि व्यलीककल्पनया क्रमाक्रमसमाक्रान्तकार्यपरम्परां कुर्वदभ्युपगम्यते नित्यैकान्तवादिभिः सांख्यादिभिस्तथा क्षणिकमपि स्वसत्ताक्षणात्पूर्वं पश्चाच्चात्यन्तमसत्सर्वथार्थक्रियायामसामर्थ्य प्रथयदपि संवृत्त्या क्रमाक्रमवृत्तिकार्यमालां 'निवर्तयदुररीक्रियते क्षणिकवादिभिः । इति कूटस्थादनतिशायनं क्षणिकस्य सिद्धमेव । ततः सुभाषितं * समन्तभद्रस्वामिभिः कुशलाद्यसंभूतिरेकान्तग्रहरक्तेष्विति *, 'परस्पर निरपेक्ष सदसदुभयकान्तनित्या14 - नित्यरूप सिद्ध हो जाता है। यदि आप कहें कि कार्यकाल को प्राप्त न करके ही कारण कार्य को करता है, तब इस कथन में भी व्यलोक-असत्त्व कल्पना समान होने से आप कूटस्थ-नित्य का उलंघन नहीं कर सकते।" अर्थात आप बौद्धों के यहाँ कारण कार्यकाल को प्राप्त होता हुआ कार्य को सिद्ध करता है या कार्यकाल को प्राप्त न करते हुये कार्य को करता है ? प्रथम पक्ष में तो दो क्षण ठहरने के कारण नित्य हो जाता है और आपके क्षणिकवाद में विरोध आ जाता है। यदि द्वितीय पक्ष लेवें तो नष्ट हुआ कारण कार्य को कैसे उत्पन्न करेगा ? यही समझ में नहीं आता है। जिस प्रकार से कटस्थ-नित्य (कारण) अपरिणामी होने से क्रम अथवा युगपत के द्वारा अर्थक्रिया को करने में असमर्थ होते हये भी असत्य कल्पना के द्वारा क्रम और यगपत से युक्त कार्यों को करता है ऐसा नित्यैकान्तवादी सांख्यों ने स्वीकार किया है। उसी प्रकार से क्षणिक भी स्वसत्ताक्षणअपने अस्तित्व काल के पूर्व और पश्चात् अत्यन्त "असत्" होते हुये सर्वथा अर्थक्रिया को करने में अपनी असमर्थता को प्रगट करता है फिर भी वह असत् हुआ कारण क्रम और युगपत् से होने वाले कार्यों को संवृति से करता है। यदि आप ऐसा स्वीकार करते हैं तब तो फिर कूटस्थ नित्य की अपेक्षा आपका क्षणिक कुछ भी विशेषता (अन्तर) नहीं रखता है यह बात सुचारु रूप से सिद्ध हो जाती है । 1 सर्वदा शून्यवादे संविदद्वैते वा प्रत्यक्षपरोक्षाकारः वैश्वरूप्यसद्भावश्च प्रकृतपर्यनुयोगस्यानिवृत्तिः हेतुः समर्थितो यतः । (दि० प्र०) 2 क्षणभङ्गस्वभावभङ्गानुषङ्गादित्यर्थः । 3 ततश्च नित्यत्वं स्यात् । 4 कार्यकालमप्राप्नुवतः कारणस्य कार्यकृतौ। 5 कार्यकरणे । (दि० प्र०) 6 मिथ्या। (ब्या० प्र०) 7 निर्वृत्तये यदुररी क्रियते इति पा०। (दि० प्र०) निष्पादनाय । (दि० प्र०) 8 कूटस्थ नातिक्रामति । तत्सदृशं भवतीत्यर्थः । (दि० प्र०) 9 अनुष्ठानमित्यादिभाष्योक्ताऽऽदिशब्दगृहीतस्य परस्परनिरपेक्षसदसदायेकान्तवादिनोपि कुशलाद्यसंभूति प्रकटयति । 10 इदानीमनुष्ठानमित्त्यादि भाष्योक्तादि शब्दगृहीतपरस्य निरपेक्षसदसदुभयकान्तनित्यानित्योभयकान्तायेकान्तेषु तदसंभूति प्रदर्शनार्थमाहुः परस्परेति । (दि० प्र०) 11 एकान्तग्रहरक्तेषु सदसदुभयकान्तादिवादिषु पक्षः कुशलाकुशलादिकं कर्म न संभवतीति साध्यो धर्मः । परस्परनिरपेक्षनयावलंबित्वात् । यथाऽद्वैतैकान्तवादिषु । (दि० प्र०) 12 पृथिव्यादि । (दि० प्र०) 13 प्रागभावादि । (दि० प्र०) 14 उभयकान्तं योगमते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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