SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकान्तवाद में पुण्यपापादि का अभाव ] प्रथम परिच्छेद मप्यसदुपवर्णयतो', - विप्रतिषेधात्स्वेष्टासिद्धेः प्रलापमात्रप्रसक्तेः । [ कारणं कार्यकाले विद्यते न वा ? ] तदयं * योगाचारः सौत्रान्तिको वा सर्वथा "शून्यं संविदद्वैतं वानिच्छन्, क्षणस्थायि कारणं स्वसत्तायां' कार्य कुवंदभ्युपगच्छन् क्रमोत्पत्तिमुपरुणद्धि' 1°सकलजगदेकक्षणवृत्तिप्रसङ्गात्" * । 'कालान्तरे कार्यं कुर्वत्कारणं क्षणिकमभ्युपगच्छतां3 नायं दोष इति चेन्न, अर्थात् सर्वथा शून्यवाद में अथवा सर्वथा संवेदनाद्वैत में प्रत्यक्ष-परोक्षाकार अनेकरूप का सद्भाव है अतएव उपर्युक्त प्रश्नों की निवृत्ति नहीं हो सकती है इसका समर्थन किया है। [ कारणकार्य के काल में रहता है या नहीं ? ] "अतएव आप"-योगाचार अथवा सौत्रांतिक सर्वथा शून्य अथवा सर्वथा संवेदनाद्वैत को स्वीकार न करते हुये कहें कि __"क्षणस्थायी एकक्षणति कारण स्वसत्ता में (स्वकाल-वर्तमान काल में) कार्य को करता है तब तो कम से कार्योत्पत्ति का विरोध आता है । अन्यथा सकल जगत को एकक्षणमात्र ही रहने का प्रसंग आ जावेगा।" अर्थात-योगाचार संवेदनाद्वैतवादी है वह सर्वथा शून्यवाद को स्वीकार नहीं करता है और सौत्रांतिक अन्तर्बाह्य उभयतत्त्ववादी है अतः वह संवेदनाद्वैत स्वीकार नहीं करता है। पुनः दोनों कहते हैं कि कारण एकक्षणमात्र रहता है और अपने अस्तित्व काल में ही कार्य को कर डालता है । आचार्य कहते हैं कि तब तो कारण के बाद कार्य होता है ऐसा क्रम नहीं बनेगा और सम्पूर्ण जगत् के सभी कारण कार्य एक समय में ही हो जावेंगे, किन्तु ऐसा दिखता नहीं है। बौद्ध-हम लोग क्षणिक कारण को कालान्तर में कार्य को करने वाला मानते हैं इसलिये यह दोष नहीं आता है। "जैन-नहीं, ऐसा मानने पर भी आपके यहाँ यदि कारण कार्य के काल को प्राप्त करता है तथा क्षणभङ गुर है इस कथन के भङ्ग-अभाव का प्रसङ्ग प्राप्त होता है । एवं कारण दो क्षण रहने से 1 असदित्यूपवर्णनं बलादायातं यतो ग्राह्यग्राहकाकारं नास्ति। 2 संवेदनमेव नास्ति कथं संवेदनानुभव इति विरोधः । (दि० प्र०) 3 ग्राह्यग्राहकाकारविविक्ततयापि प्रत्यक्षस्य संवेदनमात्रस्यानुभवः स्वेष्ट: (तस्यासिद्धिर्यतो विप्रतिषेधः परस्परम्)। 4 सर्वथा शून्यवादे संविदद्वैते वा प्रत्यक्षपरोक्षाकारो वैश्वरूप्यसद्भावश्च प्रकृतपर्यनुयोगस्यानिवृत्तिहेतुः समथितो यतः। 5 सर्वथा शून्यमनिच्छन् योगाचारः। संविद्वैतं वानिच्छन् सौत्रांतिकः । (दि० प्र०) 6 मध्यक्षणमात्रम् । (ब्या० प्र०) 7 वर्तमानकाले। (ब्या० प्र०) 8 आवृणोति । 9 सौगतः । यस्मात्किञ्चिकारणं स्वसत्ताक्षण एव कार्यकारीतीत्यभ्युपगमे सकलसमानक्षणानामेक क्षणएवोपपन्नञ्च सक्तं तस्मात्क्रमोत्पत्ति निवारयति । (ब्या० प्र०) निषेधयति । (दि० प्र०) 10 अन्यथा। 11 एकक्षणवति इति पा० । (दि० प्र०) 12 सौगतः। (दि० प्र०) 13 सौगतानाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy