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________________ एकान्तवाद में पुण्यपापादि का अभाव ] प्रथम परिच्छेद [ ७५ नित्यो 'भयैकान्तवादिनोपि तदसंभवाद' द्वैतैकान्ता' दिवादिवत् । तदेवं सर्वथैकान्तवादिनां दृष्टेष्टविरुद्धभाषित्वादज्ञानादिदोषाश्रयत्वसिद्धे राप्तत्वानुपपत्तेस्त्वमेव भगवन्नर्हन् सर्वज्ञो वीतरागश्च युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वेन निर्दोषतया निश्चितो महामुनिभिस्तत्त्वार्थशासनारभेभिष्टुतः " तत्सिद्धिनिबन्धनत्वादिति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कारे व्यासतः सम प्रतिपत्तव्यम् । ननु च " भाव एव पदार्थानामिति 12 निश्चये "दृष्टेष्टविरोधाभावात्तद्वादिनो 14 निर्दोषत्वसिद्धेराप्तत्वोपपत्तेः स्तुत्यताऽस्त्विति भगवत्पर्यनुयोगे" सतीवाहुः - "इसलिये श्री समन्तभद्रस्वामी ने ठीक ही कहा है कि एकान्तग्रह रक्त - मिथ्यादृष्टियों में अकुशल परलोक आदि की उद्भूति नहीं हो सकती है ।" कुशल उसी प्रकार से परस्पर निरपेक्ष सदसत्रूप उभयँकांत, नित्यानित्य रूप उभयैकांतवादियों के यहाँ भी वे कुशल - अकुशल परलोक आदि सभी बातें असम्भव हैं, जैसे कि अद्वैतवादी जनों के यहाँ यह सभी पुण्य-पापादि एवं परलोक आदि असम्भव ही हैं। इस प्रकार से सभी सर्वथा - एकांतवादी जन दृष्टेष्ट प्रत्यक्ष और परोक्ष से विरुद्ध वचन बोलने वाले हैं, अतः उनमें अज्ञानादि दोषों का आश्रय सिद्ध है, इसीलिये वे आप्त नहीं हो सकते हैं । अतएव हे अर्हन् ! हे भगवन् ! आप ही सर्वज्ञ और वीतराग हैं, क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हैं और आप निर्दोष हैं, यह बात निश्चित है । अतएव महामुनि उमास्वामी के द्वारा महाशास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र के आरम्भ में आपकी स्तुति की गई है, क्योंकि वह स्तुति ही सिद्धि के लिये कारण स्वरूप है और इस बात को "तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार" में विस्तार से समर्थन किया गया है उसे देखना चाहिये । उत्थानिका - सभी पदार्थ सत्रूप ही हैं ऐसा निश्चय करने पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष से विरोध नहीं आता है अतः भाववादियों को निर्दोषपना सिद्ध होने से वे भी आप्त हैं इसलिये हे समन्तभद्र ! आपकी स्तुति के योग्य वे भी होवें, क्या बाधा है ? इस प्रकार से भगवान् के द्वारा प्रश्न करने पर ही मानो श्री समन्तभद्र स्वामी कहते हैं 1 आत्माकाशादि । ( दि० प्र०) 2 शब्दबुद्धिकर्मादि । ( दि० प्र० ) 3 कुशलादि संभूति । ( दि० प्र०) 4 पूर्वोक्तो - भय पक्षोपक्षिप्तदोषानुषंगात् । ( दि० प्र० ) 5 सदेकान्ते प्रोक्तदोषानुषङ्गात् । ( दि० प्र०) 6 यथाऽद्वैतादिवादिषु कुशलाद्यसंभवः । 7 त्वन्मृतामृतबाह्यानामित्यादिनादृष्टविरूद्धभाषित्वस्य समर्थितत्वात्कुशलाकुशलं कर्मेत्यादिना इष्ट विरूद्ध भाषित्वस्य समर्थितत्वात्तद् वयमिदानीमुपसंहरन्ति । तदेवमिति । ( दि० प्र० ) 8 महान् इति पा० ( ब्या० प्र० ) 9 शास्त्रम् | ( ब्या० प्र० ) 10 तत्त्वार्थपरिसमाप्तिहेतुत्वात् । ( दि० प्र० ) 11 भो समन्तभद्राः ! अस्तित्वमेव । ( दि० प्र० ) 12 पञ्चविंशतितत्त्वानाम् । ( दि० प्र० ) 13 प्रत्यक्षानुमान । ( दि० प्र०) 14 कपिलस्य । ( दि० प्र० ) 15 प्रश्नोनुयोगः पृच्छा चेत्यमरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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