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________________ जय पराजय व्यवस्था । प्रथम परिच्छेद [ ४६ शयीतेति चेत् 'हन्त हतोसि, पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वयोर्हेतुरूपत्वापायापत्तेः, अन्यथानुपपन्नत्वस्यैव' तथा हेतुलक्षणत्वसिद्धेः, तस्यैव समर्थनरूपत्वात्, तद्भावे एव हेतोः 'प्रयोजकत्वदर्शनात् पक्षधर्मत्वादिप्रयोगे वादिनोऽसाधनाङ्गवचनस्य 10निग्रहस्थानत्वप्रसक्तेः । प्रतिपाद्यानुरोधतः पक्षधर्मत्वादिवचनान्न निग्रहप्राप्तिरिति चेत् 12तथा निगमनादिवचनादपि सा13 मा भूत, 14सर्वथातिशयासत्त्वात्।। 16यदि "पुनरयं निर्बन्ध:18 19प्रतिपाद्यानुरोधतोप्यतिरिक्तवचनम20साधनाङ्गवचनं निग्रहस्थानमिति तदा सत्त्वमात्रेण नश्वरत्वसिद्धावुत्पत्तिमत्त्वकृतकत्वादिष जैन हन्त ! बड़े खेद की बात है कि आप बिना मौत ही मर गये क्योंकि पक्षधर्म, सपक्षसत्त्व तो हेतु के रूप रहे नहीं किन्तु हमारे द्वारा मान्य "अन्यथानुपपन्न" रूप ही हेतु का लक्षण सिद्ध हो गया जो कि आपके कथनानुसार विपक्षव्यावत्ति लक्षण समर्थन नाम वाला है क्योकि उस अन्यथानुपपम्नलक्षण के सद्भाव में ही वह हेतु प्रयोजनीभूत है अतः पक्षधर्मत्व आदि का प्रयोग करने पर वादी आप बौद्ध के यहाँ असाधनाङ नाम का निग्रहस्थान प्राप्त हो जावेगा अर्थात विपक्ष से लक्षण एक ही रूप वाला हेत साधन का अङ सिद्ध हो जाने से पुनः पक्षधर्म और सपक्षसत्त्व ये दोनों ही साधन के अङ्ग नहीं रहे अतः इनका प्रयोग भी असाधनाङ्ग नाम का दोष हो ग कि आपके यहाँ निग्रहस्थानरूप दोष माना है। ___बौद्ध प्रतिपाद्य-शिष्यों के अनुरोध से पक्षधर्मत्व भादि का कथन करना निग्रहस्थान नहीं हो सकता है। जैन-उसी प्रकार शिष्यों के अनुरोध से ही निगमन आदि के भी प्रयोग करने पर उस निग्रहस्थान की प्राप्ति नहीं होना चाहिये क्योंकि सर्वथा ही दोनों में कोई अन्तर नहीं है। यदि आपका यह आग्रह हो कि-शिष्यों का अनुरोध होने पर भी अधिक वचन (निगमन आदि) का प्रयोग असाधनाङ्गवचन नामक निग्रहस्थान है। तब तो "सत्त्वमात्र से ही नश्वरपने की सिद्धि के हो जाने पर 1 जैन: प्राह। 2 जैनोक्तस्य । 3 विपक्षावृत्तिलक्षणसमर्थनस्य गमकत्वप्रकारेण । 4 अन्यथानुपपन्नत्वस्यैव । (दि० प्र०) 5 अन्यथानुपपन्नत्वलक्षणस्य सद्भावे । तदभावे हेतोः प्रयोजकत्वादर्शनादिति पाठान्तरम् । 6 तदभावे तू हेतोरप्रयोजकत्वमेवेत्यर्थः। 7 साधकत्व । (ब्या०प्र०) 8 सौगतस्य । 9 विपक्षाद्वयावृत्तिलक्षणहेतोरेकस्यैव साधनाङ्गत्वात् पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वरूपस्यासाधनाङ्गत्वम् । 10 तथा अन्यथानुपपन्नत्वाभावे पक्षधर्मत्वसपक्षसत्वविपक्षव्यावत्तिप्रयोगे सत्यपि सौगतादे: पक्षधर्मत्वादिकमसाधनाङ्गाधिकरणत्वान्निग्रहस्थानं प्रसजति । (दि० प्र०) 11 सौगत आह। 12 जैनः प्राह। 13 निग्रहप्राप्तिः। 14 स्या० हे सौगत ! तवास्माकञ्च पक्षधर्मत्वादिवचननिग्रहादिवचनाभ्यां सर्वथापि भेदासंभवात् । (दि० प्र०) 15 अतिशयो, विशेषः । 16 हे सौगत । 17 हे सौगत ! यदि तवायमाग्रहः शिष्याणां व्युत्पत्तिपर्यन्तं नाधिकवचनं ततः परमसाधनाङ्गवचनत्वात् निग्रहस्थानं भवति सर्वेषां तदा तवापि सत्त्वमात्रेण शब्दस्य क्षणिकत्वसिद्धौ सत्त्यामुत्पत्तिमत्त्वादि वचनमधिकविशेषणग्रहणान्निग्रहस्थानमायाति । (दि० प्र०) 18 आग्रहः । 19 अधिकम् । (दि० प्र०) 20 निगमनादिकम् । 21 शब्दो नश्वरः, सत्त्वादिति रीत्या। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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