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________________ ४८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ७ [ जैनाचार्या अन्यथानुपपन्नस्यैव बौद्धस्य हेतुलक्षणत्वं साधयंति ] तदेतदपि स्वदर्शनानुरागमात्रं सौगतस्य निगमनादेरपि साधनावयवत्वात्, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवा इति परैरभिधानात्, निगमनस्योपनयस्य' वा 'संगरस्येवावचने' न्यूनाख्यस्य निग्रहस्थानस्य प्रसक्तेः, हीनमन्यतमेनापि न्यूनमिति वचनात् । यदि पुनः साधनावयवत्वेपि निगमनादेर्वचनमयुक्तं, हेत्वादिनवार्थ प्रत्यायनादिति मतं तदा समर्थनस्य12 हेतुरूपत्वेपि 13निर्दोषहेतुप्रयोगादेव साध्यप्रसिद्धस्तदभिधानमनर्थक कथं न भवेत् ? यतः समर्थनं निगमनादीनतिशयीत । तोविपक्षव्यावृत्तिसाधनलक्षणस्य" समर्थनस्यावचने 1'रूपान्तरसत्त्वेपि गमकत्वासम्भवानिगमनाद्यवचनेपि गमकत्वोपपत्ते:19 समर्थनं निगमनादीन जैन-आप बौद्ध का यह सभी कथन केवल अपने मत के अनुरागमात्र का पोषक है क्योंकि निगमन आदि भी हेतु के अवयवरूप से स्वीकार किये गये हैं। "प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवा इति" अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पांच अवयव हैं इस प्रकार नैयायिकों के यहाँ भी कथन किया गया है। इन नैयायिकों के यहाँ निगमन अथवा उपनय का भी प्रतिज्ञा के समान ही प्रयोग न करने में न्यून-हीन नाम का निग्रहस्थान प्राप्त होता है क्योंकि इन पांच अवयवों में से एक का प्रयोग भी कम होने पर "न्यून" नामक निग्रह स्थान कहा गया है। बौद्ध-निगमन आदि साधन के अवयव हैं फिर भी उनका प्रयोग करना अयुक्त है क्योंकि हेतु आदि से ही अर्थ-साध्य का निर्णय हो जाता है । जैन-तब तो हम ऐसा कह सकते हैं कि समर्थन भी भले ही हेतु का रूप हो फिर भी निर्दोष हेतु के प्रयोग से ही साध्य की सिद्धि हो जाती है अतः उस समर्थन का भी प्रयोग करना अनर्थक क्यों नहीं हो जावेगा जिससे कि आपका समर्थन निगमन आदि की अपेक्षा अतिशयवान-विशेष हो सके ? अर्थात् नहीं हो सकता है। बौद्ध हेतु का समर्थन जो कि विपक्षव्यावृत्ति साधनलक्षणरूप है उसका प्रयोग न करने पर रूपांतर पक्षधर्म, सपक्षसत्त्व के होने पर भी वह हेतु गमक नहीं है और निगमन आदि का प्रयोग न करने पर भी हेतु गमक है अतएव समर्थन, निगमन आदि की अपेक्षा विशेष ही है। 1 (यौग आह)। 2 नैयायिकैः। 3 परैरभिहितं पञ्चरूपं युक्तिरहितमिति सौगताशंकायां भवदुक्तं रूपञ्च युक्तिरहितमित्त्यभिप्रायं मनसिकृत्त्य प्राहः निगमनस्येति । (दि० प्र०) 4 प्रतिज्ञायाः। (दि० प्र०) 5 प्रतिज्ञाया: । 6 यथा संगरस्यावचने न्यूनाख्यं तथा। 7 पञ्चानामप्यवयवानां मध्ये। 8 न्यूनं नाम निग्रहस्थानम् । 9 हे सौगत । 10 साध्यार्थपरिज्ञानात् । (ब्या० प्र०) 11 इतो जैनः प्राह । 12 विपक्षाद्वयावृत्तिलक्षणस्य। 13 अव्यभिचारि । (व्या० प्र०) 14 अपि तु नातिशयीत। 15 सौगतः प्राह। 16 सौगतमते साधनलक्षणं हेतुः कि विपक्षाद व्यावृत्तिरेव । ईदृशस्य स्वसाध्यसाधने समर्थस्य समर्थनस्यानुच्चारणे पक्षधर्मत्वसपक्षे सत्वनाम सत्वेपि सद्भावेपि स्वसाध्यसाधकत्वं न स्यात् । (दि० प्र०) 17 पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वयोः सत्त्वेपि। 18 सौगतः । (दि० प्र०) 19 समर्थनसद्भावात् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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