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________________ प्रथम परिच्छेद 4 जयपराजय व्यवस्था ] [ ४७ 'नास्तीत्येतावन्मात्रनिमित्तोयमसद्व्यवहारः, 'अन्यस्य तन्निमित्तस्याभावादिति । तचैव 'त्रिविधस्य हेतोः समर्थनं न रूपान्तरं विपक्षव्यावृत्तिरूपत्वात् 'तृतीयस्यैव रूपस्यासपक्षा'सत्त्वलक्षणस्यैवं ' " प्रतिपादनात् । " तदवचने 12 साधनाङ्गस्य 3 त्रिरूप लिङ्ग स्यावचनादसाधनाङ्गवचनं निग्रहाधिकरणं प्रसज्येत । निगमनादेस्तु हेतुरूपातिरिक्त "त्वादभिधानमनर्थकं, ''त्रिरूपहेतुना साध्यार्थप्रतिपत्तेर्विहितत्वात् । ततो निगमनादीनतिशेते" एवं "समर्थनमिति । 13 सकता है । उपलब्धिलक्षणप्राप्त दृश्यानुपलब्धि में 'असत् ' शब्द का व्यहार नहीं हो सकता है ऐसी आशंका होने पर व्याप्ति का समर्थन करते हैं । यदि कदाचित् अदृश्यानुपलब्धि रूप असत् ( शशविषाण आदि में ) सर्वदा असत् व्यवहार स्वीकार करने पर तो दृश्यानुपलब्धिरूप अन्य घटादि पदार्थ में भी असत् व्यवहार मानना पड़ेगा क्योंकि दोनों का लक्षण समान ही है । एवंविध-उपलब्धिलक्षणप्राप्त का असत्त्व स्वीकार न करने पर अन्यत्र शशविषाण में भी 'असत्' व्यवहार का योग नहीं होगा । एवंविध-उपलब्धिलक्षणप्राप्त शशविषाण आदि सत् की अन्य उपलभ्भ कारण के होने पर अनुपलब्धि नहीं है किन्तु उपलब्धि ही है क्योंकि अनुपलभ्यमान पदार्थ इस प्रकार - उपलब्धिलक्षण प्राप्त नहीं हैं, इस प्रकार एतावन्मात्र निमित्तक यह असत् व्यवहार है क्योंकि अन्य-अदृश्यानुपलब्धि लक्षण पदार्थ में “असत्" व्यवहार का निमित्त नहीं है । इस प्रकार इन तीन हेतु स्वभाव हेतु, कार्यहेतु अनुपलब्धि हेतु का समर्थन किया । यह तीन प्रकार के हेतु का समर्थन रूपान्तर ( भिन्न रूप ) भी नहीं है प्रत्युत यह समर्थन विपक्ष से व्यावृत्ति रूप ही है क्योंकि तीसरा ही रूप असपक्ष-विपक्ष से असत्व-व्यावृत्तिरूप है पूर्वोक्त समर्थन प्रकार से ही ऐसा हमने प्रतिपादन किया है। एवं तृतीय रूप समर्थन 'विपक्षाद्व्यावृत्ति' को न कहने पर सिद्धि के लिये अवयवभूत तीन रूप वाले हेतु का प्रयोग न करने से असाधनाङ्ग वचन नामक निग्रह स्थान का प्रसङ्ग प्राप्त हो जावेगा अतः उपर्युक्त हेतु का समर्थन करना ही चाहिये, किन्तु निगमन आदि तो हेतु रूप से भिन्न हैं अतः उनका प्रयोग करना अनर्थक ही है क्योंकि त्रिरूपहेतु के द्वारा ही साध्य के अर्थ का ज्ञान होता है ऐसा कहा गया है अतएव हमारा मान्य समर्थन निगमन आदि से अतिशयवान्-विशेष ही है अर्थात् हमारे मान्य समर्थन का प्रयोग तो करना ही पड़ेगा किन्तु निगमन आदि का प्रयोग निग्रहस्थान है । 1 उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धिमात्रनिमित्तः । 2 अदृश्यानुपलब्धिलक्षणस्य । 3 असद्व्यवहारनिमित्तस्य । नास्तीति निमितं यस्य तस्य । 4 स्वभावकार्यानुपलब्धिरूपस्य । (दि० प्र० ) 5 समर्थनस्य । ( ब्या० प्र० ) 6 विपक्ष - व्यावृत्तिरूपस्य | 7 असपक्षो विपक्षः । 8 विपक्षेऽविद्यमानस्यान्यथानुपपन्नत्वस्य समर्थनप्रतिपादनात् । (दि० प्र०) 9 विपक्षव्यावृत्तिलक्षणस्य । ( दि० प्र० ) 10 पूर्वोक्तसमर्थनप्रकारेण । 11 तृतीयरूपसमर्थनस्यावचने । 12 समर्थनम् । ( दि० प्र०) 13 सिध्यङ्गस्य । 14 अधिकत्वात् ( दि० प्र०) 15 पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षाद् व्यावृत्तिरिति त्रिरूप हेतु: । (दि० प्र०) 16 निगमनादिभ्योऽतिशयवद्भवति । 17 कर्तृ । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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