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________________ अष्टसहस्री [ कारिका ७ विप्रकृष्टं 'यदनात्मरूपप्रति भासविवेकेन प्रतिपत्तप्रत्यक्षप्रतिभासिरूपं स तादृशः 'सत्स्वन्येषूपलम्भकारणेषु 'तथानुपलब्धोऽसद्व्यवहारविषयः । ततोन्यथा सति "लिङ्ग संशयः । 12अत्रापि 13सर्वमेवंविधमसद्व्यवहारविषयः14 15इति व्याप्तिः-_16कस्यचिदसतो18 भ्युपगमेऽन्यस्य9 20तल्लक्षणाविशेषात् । न ह्येवंविधस्यासत्त्वानभ्युपगमेन्यत्र तस्य योगः । न ह्येवंविधस्य24 सतः सत्स्वन्येषूपलम्भकारणेष्वनुपलब्धिः। अनुपलभ्यमानं त्वीदृशं26 अदृश्य पदार्थों को कोई भी ज्ञाता प्रत्यक्ष से उपलब्ध कर ही नहीं सकता है। अतएव उनका अभाव भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि जो पदार्थ प्राप्त करने योग्य हैं उन्हीं का सद्भाव या अभाव करना शक्य है अर्थात् अनुपलब्धि के दो भेद हैं (१) उपलब्धिलक्षणप्राप्त की अनुपलब्धि (२) अनुपलब्धिलक्षणप्राप्त की अनुपलब्धि। इनके दूसरे नाम हैं-दृश्यानुपलब्धि और अदृश्यानुपलब्धि । जो पदार्थ दिखने योग्य हैं जैसे घट-पट आदि पदार्थ, यदि ये पदार्थ उपलब्ध न हों तो उनका अभाव बतलाना दृश्यानुपलब्धि है । जो पदार्थ दिखने योग्य नहीं हैं जैसे परमाणु अथवा भूत पिशाचादि ये पदार्थ दिखने योग्य नहीं है अतः इनका अभाव कहना अदृश्यानुपलब्धि है। वहाँ उपलब्धिलक्षण. प्राप्तिरूप स्वभाव विशेष और कारणांतर-चक्षु आदि की सकलता रूप स्वभाव विशेष हैं। ___जो तीन प्रकार के विप्रकृष्ट (देश, काल, स्वभाव) से परोक्ष नहीं हैं। जो अनात्मरूप प्रतिभास से रहित होने से ज्ञाता के प्रत्यक्ष में प्रतिभासित होने योग्य है वह उस प्रकार है । एवं चक्षु आदि अन्य उपलभ्भ कारण के होने पर भी जो उस प्रकार से अनुपलब्ध है। तीन प्रकार के परोक्ष स्वभाव से परोक्ष रूप नहीं है एवं अन्यरूप प्रतिभास से रहित होने से प्रतिपत्ता-ज्ञाता को प्रत्यक्ष रूप से प्रतिभासने योग्य हैं । उसी अनुपलब्धि के विषयभूत पदार्थ में "असत्" व्यवहार होता है। उस दृश्यानुपलब्धि से भिन्न अदृश्यानुपलब्धि से भिन्न अदृश्यानुपलब्धि को हेतु बनाने में संशय पाया जाता है और इसीलिये इस अनुपलब्धि हेतु में भी "सभी वस्तु इस दृश्यानुपलब्धिरूप हैं और उसमें ही "असत्" व्यवहारविषयक व्याप्ति देखना चाहिये। यहाँ किसी का कहना है कि अनुपलब्ध-अदृश्यानुपलब्धि रूप पदार्थ में ही 'असत्' व्यवहार हो 1 एतदर्थः क इत्युक्ते आह। 2 अनात्मा अन्यपदार्थः। 3 अघटव्यावृत्तिर्घट इति। 4 राहित्येन । 5 उपलब्धिलक्षणप्राप्तिरूपः स्वभावविशेषः कारणान्तरसाकल्यं च स्वभावविशेष इत्यर्थः। 6 चक्षुरादिषु । 7 त्रिविधेन विप्रकर्षेण विप्रकृष्टत्वप्रकारेण, अनात्मरूपप्रतिभासविवेकेन प्रतिपत्तप्रत्यक्षप्रतिभासित्वप्रकारेण चानुपलब्धः। 8 अनुपलब्धिविषयः। 9 उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः सकाशात् । 10 अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भप्रकारेण । 11 अनुपलब्धिलक्षणे । 12 न केवलं सत्त्वादिलक्षणे । 13 वस्तु। 14 उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भरूपम् । 15 द्रष्टव्या। 16 ननु अनुपलब्धस्यैवासदयवहारहेतुत्वात् कथमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तत्सङ्गतमित्याशङ्कय व्याप्ति समर्थयति। 17 शशविषाणादेः। 18 सर्वदा। 19 घटादेः। 20 उपलब्धिलक्षणप्राप्तियोग्यः शशो विषाणं च। 21 उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य । 22 असद्व्यवहारस्य । 23 शशविषाणे । 24 उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य शशविषाणादेः। 25 किन्तूपलब्धिरेव । 26 उपलब्धिलक्षणप्राप्तम् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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