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________________ जयपराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद [ ४५ खर्जुरस्य देशान्तरेषु 'मातृविवाहाभावेऽभाववत् । एवं समर्थितं तस्य कार्य सिध्यति । सिद्धं स्वसंभवेन तत्संभवं साधयति, कार्यस्य कारणाव्यभिचारात् । 1 अव्यभिचरि च 12स्वकारणः सर्वकार्याणां 13सदृशो न्याय 14इति । 1 अनुपलब्धेरपि समर्थनं, 16प्रतिपत्तुरुप1"लब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धिसाधन18, 1 तादृशस्यैवानुपलब्धेरसद्व्यवहारसिद्धे:20, अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य प्रतिपत्तु:22 23प्रत्यक्षोपलब्धिनिवृत्तावप्यभावसिद्धेः । 24तत्रोपलब्धिलक्षणप्राप्तिः स्वभावविशेष: 26कारणान्तरसाकल्यं च स्वभावविशेषः । 27यन्न त्रिविधेन28 विप्रकर्षण उत्पन्न करने की सामर्थ्य है अन्य में नहीं इस प्रकार से शङ्का का अभाव हो जाने पर पुनः यदृच्छा संवाद की भी निवृत्ति हो जाती है जैसे 'मातृविवाहोचित देश में उत्पन्न होने वाले पिण्डखजूर का देशांतर में मातृविवाह के अभाव में अभाव है' यह यदृच्छासंवाद है उसका भी अभाव हो जाता है। __ इस प्रकार अन्वय व्यतिरेक से समर्थित उस अग्निरूप कारण का कार्य धूम है यह सिद्ध हो जाता है। धम अग्नि से उत्पन्न सिद्ध होकर ही अग्नि के सद्भाव को सिद्ध करता है क्योंकि कार्य कभी भी अपने कारण को व्यभिचरित नहीं करता है अतः सभी कार्यों का अपने-अपने कारणों से अव्यभिचारीपना है इसमें अन्वय व्यतिरेक ही न्याय है अर्थात् सभी कार्यों का अपने-अपने कारणों के साथ अन्वय व्यतिरेक पाया जाता है । इस प्रकार से कार्य हेतु का समर्थन कर दिया गया है। पुनः अनुपलब्धि हेतु का समर्थन करते हैं प्रतिपत्ता–ज्ञाता पुरुष को उपलब्धिलक्षणद्राप्त पदार्थ में ही अनुपलब्धि हेतु होता है क्योंकि उपलब्धिलक्षणप्राप्त पदार्थ की ही अनुपलब्धि होने से उसी में ही 'असत' यह व्यवहार सिद्ध है क्योंकि क्षण प्राप्त परमाण पिशाचादि जो अदश्य पदार्थ हैं उनको ज्ञाता पुरुष प्रत्यक्ष से उपलब्ध नहीं कर सकते फिर भी उन पदार्थों का अभाव नहीं कहा जा सकता है अर्थात् परमाणु आदि 1 देशान्तरस्वमातृविवाह इति पा० । (दि० प्र०) 2 इति यदृच्छासंवादः। 3 अन्वयव्यतिरेकरूपेण। 4 कार्यम् । (दि० प्र०) 5 अग्नेः कारणस्य। 6 सत् । (दि० प्र०) 7 सिद्धयति स्वसंभवे न इति पा० । (दि० प्र०) 8 विद्यमानत्वेन । (दि० प्र०) 9 विवक्षितकारणस्य । (दि. प्र०) 10 अव्यभिचारोपि सर्वत्र कार्यकारणे कथमित्युक्ते आह । 11 अविनाभावे । (दि० प्र०) 12 सर्व कार्याणां स्वकारणैरव्यभिचारे सति न्यायः सदशस्तन्तुभ्यः पट उत्पद्यते मदो घट उत्पद्यते इति युक्तम । (दि० प्र०) 13 अन्वयव्यतिरेकाभ्यामेवेत्यर्थः । 14 इति कार्यहेतुसमर्थनम्। 15 हेतोः । 16 पुरुषस्य प्राप्ति स्वभावविशेषस्य घटादेर्वस्तुनोऽनुपलब्धिसाधनं घटते । (दि० प्र०) 17 संबन्धिनः । (दि० प्र०) 18 वस्तुनः । अनुपलब्धेरिति साधनस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धित्वसाधनम् । (दि० प्र०) 19 उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धिर्घटते । उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यैव घटादेरनुपलब्धिनामहेतोः सकाशादभावो व्यवहारः सिद्धयति । (दि० प्र०) 20 सकाशात् । (दि० प्र०) 21 परमाण्वादेरदृश्यस्य । 22 प्रतिपतृ इति पा० । (ब्या० प्र०) 23 लक्षण । (ब्या० प्र०) 24 एवं सति । (ब्या० प्र०) 25 उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य वस्तुनः स्वरूपम् । 26 कारणान्तरं चक्षुरादि। 27 वस्तु । (ब्या० प्र०) 28 देशकालस्वभावभेदात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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