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________________ ५० ] अष्टसहस्त्री [ कारिका ८ चनमतिरिक्तविशेषणोपादानात् ' कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वादिषु च कप्रत्ययातिरेकाद +साधनाङ्गवचनं पराजयाय प्रभवेत् । ' क्वचित्पक्ष 'धर्मत्वप्रदर्शनं', संश्च' शब्द इत्यविगा - नात् " । यस्य " निरुपाधि 12 सत्त्वं प्रसिद्धं तं प्रति शुद्ध : 14 स्वभावहेतुः प्रयुज्यते, नश्वरः शब्दः सत्त्वादिति । यस्य 17 18 त्वनर्थान्तरभूतविशेषणं" सत्त्वं प्रसिद्धं तं प्रति सोनर्थान्तरभूतविशेषण 21 एवोत्पत्तिमत्त्वादिति 22 । यस्य 23 24 पुनरर्थान्तरभूतविशेषणं 25 सत्त्वं" संप्रसिद्धं तं .15 उत्पत्तिमत्त्व, कृतकत्व आदि वचन अधिक विशेषण रूप ही ग्रहण किये गये होने चाहियें और कृतकत्व, प्रयत्नानंतरीयकत्व - प्रयत्न के अनन्तर होना आदि में भी 'क' प्रत्यय के अधिक होने से असाधनांग वचन रूप दोष हो जावेगा जो कि आपका ही पराजय कर देगा । कहीं अनुमान में भी पक्षधर्म का दिखलाना पराजय के लिये ही हो जावेगा क्योंकि "संश्च शब्द:" इस प्रकार के उपनय के प्रयोग से ही विसंवाद नहीं रहता है ।" अर्थात् "शब्द नश्वर है क्योंकि सतुरूप है" इस सत्त्वहेतु से ही शब्द का नश्वरत्त्व सिद्ध हो गया है पुनः "उत्पत्तिमत्त्वात्" "कृतकत्वात्" "प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्" इत्यादि तुओं का प्रयोग व्यर्थ है एवं "कृतक" शब्द में 'क' प्रत्यय भी स्वार्थ में हुआ उसका भी प्रयोग व्यर्थ ही है । यदि इनका प्रयोग किया जाता है तो असाधनाङ्ग नाम का निग्रहस्थान हो जाता है तथा 'संश्च शब्द:' इस उपनयलक्षण पक्षधर्म को दिखाना आप सौगत के लिये असाधनाङ्ग वचन होने से पराजय के लिये ही हो जाता है । बौद्ध - जिस अद्वैतवादी योगाचार के यहाँ उपाधिरहित सत्त्व प्रसिद्ध है उसी के प्रति शुद्ध स्वभावहेतु का प्रयोग किया जाता है जैसे “शब्द नश्वर है क्योंकि सत्रूप है" और जिन सांख्य या जैनों के यहाँ अनर्थान्तरभूत विशेषण है जिसका अर्थात् अभिन्नविशेषणवाला सत्त्व प्रसिद्ध है । उनके प्रति वह अनर्थान्तरभूत विशेषण ही "उत्पत्तिमत्त्वात् " इस प्रकार प्रयुक्त किया जाता है । जिस नैयायिक के यहाँ अर्थान्तरभूतविशेषणवाला सत्त्व विशेषणरूप “कृतकत्वात् " इस हेतु का प्रयोग किया जाता है प्रसिद्ध है उनके प्रति अर्थान्तरभूतक्योंकि पर व्यापार की अपेक्षा रखने 1 सत्त्वादतिरिक्तविशेषणमुत्पत्तिमत् कृतकत्वादिकम् । ( ब्या० प्र० ) 2 उत्पत्तिमत्वं कृतकत्वञ्च सत्त्वस्य विशेषणम् । ( ब्या० प्र० ) 3 शब्दोऽनित्य: तात्वोष्टव्यापारानान्तरीयकत्वात् । ( दि० प्र०) 4 अतिरेक आधिक्यम् । 5 अनुमाने । 6 क्वचित्पक्षधर्म प्रदर्शनम् । इति पा० । ( दि० प्र० ) 7 संश्च शब्द इत्युपनयेनैवाविप्रतिपत्तेः (अविगानतः) पक्षधर्मस्य प्रदर्शनमतोधिकम् । तत एव पराजयाय । 8 उपनयप्रदर्शनम् । ( दि० प्र०) 9 अविप्रतिपत्तितः । ( दि० प्र०) 10 निसन्देहात्पक्षधर्म प्रदर्शनम् । ( दि० प्र०) 11 प्रागुक्तं सर्वं परिहरन् सौगतो aक्ति, यस्य अद्वैतवादिनो योगाचारस्येत्यर्थः । 12 उत्पत्तिमत्त्वकृतकत्वादिविशेषणरहितम् । 13 स्वाभाविकम् | ( दि० प्र० ) 14 शब्दः इति पा० । ( दि० प्र०) 15 कथम् । ( दि० प्र० ) 16 गम्यत्वादित्यधिकः पाठः खपुस्तके । 17 सांख्यस्य जैनस्य वा । 18 अभिन्न । बस: । ( दि० प्र० ) 19 अनर्थान्तरभूतं विशेषणं (उत्पत्तिमत्त्वम्) यस्य तत् । 20 सिद्धम् इति पा० । (दि० प्र०) 21 बस: । प्रयुज्यते नश्वरः शब्द उत्पत्तिमत्वात् । ( दि० प्र०) 22 नातिरिक्तम् । 23 नैयायिकस्य | 24 भिन्नः । ( दि० प्र० ) 25 ( कृतकत्वम् ) । 26 पुनरर्थान्तरभूतविशेषण एव कृतकत्वादित्यपेक्षित । इति पा० । (दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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