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________________ जयपराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद श्चेत्यनिवृत्तिरेव शङ्कायाः । ततो' व्यतिरेकस्य सन्देहादनकान्तिको हेत्वाभासः स्यात् । न 'ह्यदर्शनमात्रा व्यावृत्तिः, 'विप्रकृष्टेष्वर्थेष्वसर्वदशिनोऽदर्शनस्याभावासाधनात्, 'अग्दिर्शनेन सतामपि "केषाञ्चिदर्थानामदर्शनात् । बाधकं पुनः प्रमाणम् । यस्य क्रमयोगपद्याभ्यां न योगो14, न तस्य 1 क्वचित्सामर्थ्यम् । अस्ति 16चाक्षणिके स: । इति 18प्रवर्तमानमसामर्थ्यमसल्लक्षणमाकर्षति । तेन20 यत्सत्कृतकं वा तदनित्यमेवेति सिध्यति । तावता22 123 प्रयोग क्रम के नियम का अभाव होने से इष्ट क्षणिकत्व की सिद्धि दोनों जगह समान है। पहले धर्मी में हेतु के सत्त्व को सिद्ध करके पश्चात् हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति सिद्ध करने में विरोध नहीं है क्योंकि दोनों प्रकार से समर्थन में भी भाष्य कथन सङ्घटित होता है। हेतु का समर्थन करके पुनः व्याप्ति को सिद्ध करना इसलिये है कि विपर्यय (विपक्ष-बौद्ध के क्षणिकत्व को सिद्ध करने में नित्य यह विपक्ष है) में बाधक प्रमाण को दिखलाना । यदि पुनः सभी सत् अथवा कृतक प्रतिक्षण विनाशी न होवें-नित्य हो जावें, तब तो नित्य में क्रम और युगपत् के द्वारा अर्थक्रिया का विरोध हो जावेगा क्योंकि अर्थक्रिया की सामर्थ्य ही सत्त्व का लक्षण है । अनित्य-रूप से स्वीकृत सभी पदार्थों से यदि वह सत्त्व लक्षण व्यावृत्त हो जावे तब तो वे सभी पदार्थ असत् ही हो जावेंगे पुनः सर्व सामर्थ्य रूप स्वभाव से रहित वस्तु निरुपाख्य-निःस्वभाव ही हो जावेगी। जैन-इस प्रकार से सत्व हेतु नित्य रूप विपरीत साध्य में नहीं है ऐसा बाधक प्रमाण न दिखाने पर विपक्ष के साथ हेत के विरोध का अभाव है अर्थात मापका सत्त्वहेतु विपक्षनित्य से व्यावृत्त नहीं हुआ एवं इन सत्त्वादि हेतुओं की विपक्षनित्य में वृत्ति नहीं दीखने पर भी ये घट पटादि पदार्थ सत अथवा कृतक हों और नित्य भी होवें इस प्रकार से शङ्का की निवृत्ति (अभाव) नहीं होगी । अर्थात् नित्य पदार्थ में भी सत्त्व का सद्भाव हो जावेगा अतः नित्य में उस सत्त्व के सद्भाव को दूर करने के लिये बाधक प्रमाण को दिखाना ही चाहिये ऐसा नियम है। 1 नित्यात् । 2 सत्त्वलक्षणसाधनव्यावृत्तेः । 3 सन्दिग्धानै कान्तिकः । सत्त्वादित्ययं हेतुः। 4 नित्ये सत्त्वकृतकत्वयोरदर्शनमात्रात् । 5 नित्यात्सत्त्वादेः साधनस्य । 6 आह सौगतो नित्ये सत्त्वं न दृश्यतेऽतोऽदर्शनमात्रात् सत्वादिति साधनस्य नित्ये निवृत्तिरेव । स्याद्वाद्येवं नहि। कुतोऽस्मदादेः छद्मस्थस्यादर्शनमात्र देशकालस्वभावविप्रकृष्टेष्वर्थेष्वभावं न साधयति यतः । (दि० प्र०) 7 परमाण्वादिषु । (ब्या० प्र०) 8 किञ्चिज्ज्ञस्यादर्शनं नित्ये सत्त्वाभावं न साधयति यतः। 9 पूर्वभाग्दशिना नरेण । 10 असर्वदर्शनेन । (दि० प्र०) 11 विप्रकृष्टानाम् । 12 बाधकप्रमाणेन शङ्काया निवृत्ति: कुत इत्याशङ्कायामाह। 13 नित्यवस्तुनः। 14 योग: संबन्धः । (दि. प्र.) 15 साध्यधर्मे कार्ये। 16 नित्य: पक्षः सत्त्वं न भवतीति साध्यो धर्मः क्रमयोगपद्याभ्यां तस्यायोगात् । (दि० प्र०) 17 क्रमयोगपद्यायोगः। 18 अर्थक्रियाकरणासामर्थ्यम् । 19 नित्ये। 20 कारणेन । (दि. प्र.) 21 विपक्षे बाधकप्रमाणमात्रेणव। 22 विपर्यये बाधमप्रमाणोपदर्शनेन। (दि० प्र०) 23 विपक्षे बाधकप्रमाणमात्रेणव साधनधर्म सति नियमेन साध्यधर्मस्य सद्भावः स्वभावहेतुलक्षणं भवति । कार्यहेतोस्तु वक्ष्यमाणप्रकारेण । अन्यथासाध्यधर्मस्य साधर्म्यमात्रान्वयसाधनादि धर्मस्यासाधारणं लक्षणं भवतीत्यर्थः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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