SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० ] अष्टसहस्री [ कारिका ७ च्याप्तिप्रसाधनस्याविरोधात् । व्याप्तिप्रसाधनं पुनर्विपर्यये 'बाधकप्रमाणोपदर्शनम् । यदि पुनः सर्वं सत्कृतकं वा प्रतिक्षणविनाशि न' स्यान्नित्ये क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । अर्थक्रियासामर्थ्य 11सत्त्वलक्षणमतो 12च्यावृत्तमित्यसदेव13 14तत्स्यात् । सर्वसाम ोपाख्या विरहलक्षणं हि "निरुपाख्यमिति । एवं19 20साधनस्य21 22साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणानुपदर्शने23 24विरोधाभावादस्य25 विपक्षे नित्ये वृत्तेरदर्शनेपि 26सन् कृतको वा स्यान्नित्य भी अवयव नहीं है तो 'न्यून' नाम का निग्रहस्थान हो जावेगा। जैन अनुमान के मुख्य दो अवयव मानते हैं-प्रतिज्ञा और हेतु, क्योंकि आचार्यों का कहना है कि वादकाल में विद्वान् लोग पूर्ण व्युत्पन्न रहते हैं । उनके लिये उदाहरण आदि की आवश्यकता नहीं है किन्तु शास्त्र में शिष्यों को समझाने के लिये जैनाचार्य पांचों ही अवयवों को मान लेते हैं। किन्तु यहाँ बौद्ध इतना बुद्धिमान् बन रहा है उसका कहना है कि अनुमान के प्रयोग में एक हेतु का ही प्रयोग करना चाहिये प्रतिज्ञा का प्रयोग भी निग्रहस्थान है । जैनाचार्यों ने उसे समझाया कि भाई ! प्रतिज्ञा के प्रयोग बिना मात्र हेतु के प्रयोग से धर्मी में संदेह बना ही रहेगा। तथा च यदि ऐसा ही है तब तुम पक्षधर्मत्व आदि त्रिलक्षण वाले हेतु का प्रयोग करके उसका समर्थन क्यों करते हो वह समर्थन भी वचनाधिक्य दोष से सहित होने से निग्रहस्थान हो जावेगा । अथवा हेतु और समर्थन इन दो के प्रयोग की अपेक्षा, मात्र समर्थन का ही प्रयोग करो प्रतिज्ञा के समान हेतु का प्रयोग भी न करो तब उसने कहा कि हेतु को कहे बिना समर्थन किसका करेंगे ? पुनः आचार्यों ने भी यही कहा कि प्रतिज्ञा के प्रयोग बिना किसकी सिद्धि के लिए हेतू का प्रयोग होगा ? इत्यादि प्रश्नोत्तर मालिका से यही निष्कर्ष निकलता है कि अनुमान प्रयोग में प्रतिज्ञा का प्रयोग अतिआवश्यक है एवं प्रसंगोपात्त उदाहरण-अन्वय व्यतिरेक उपनय, निगमन इनका प्रयोग भी निग्रहस्थान नहीं होता है । 1 ननु हेतोः साध्येन व्याप्ति प्रसाध्यम्मिणि भावसाधनं समर्थनमित्यूक्ता यथा यत्सदित्यादिना व्याप्तिमात्र धर्मिणी भावसाधनं चोक्तं न पुनर्व्याप्ति प्रसाधनमतस्तत्कथमित्त्या शंकायामाह व्याप्तीति । (दि० प्र०) 2 उभयथा समर्थनेपि भाष्यकथनं संघटते इति शेषः। 3 हेतुसमर्थनं प्रतिपाद्य पुनर्व्याप्तेः साधनम्। 4 विपक्षे यथा बौद्धस्य क्षणिकत्वसाधने नित्यम् । 5 सत्त्वस्य। 6 व्यापकानुपलब्धेरिति । 7 एतदेव समर्थयति। 8 अस्तु । (दि० प्र०) 9 तहि नित्यं स्यात् नित्यस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रिया विरुद्धय ते । (दि० प्र०) 10 तदेति शेषः। 11 (अनित्यत्वेनाभिमतात्सर्वस्मात्)। 12 व्यावृत्तमतो सदेव । इति पा० । (दि० प्र०) 13 अतः सत्वलक्षणार्थक्रियासामर्थ्य व्यावर्त्तनान्नित्यमसदेव भवेत् । (दि० प्र०) 14 (सर्वम्)। 15 स्वभाव । (दि० प्र०) 16 सजातीयविजातीयकार्यकारणसामर्थ्यमुपाख्या स्वभाव इति यावत् । 17 यतः । (दि० प्र०) 18 यदि पुनरित्याधुक्तप्रकारेण । (दि० प्र०) 19 सति । (दि०प्र०) 20 सत्त्वस्य। 21 स्याद्वादी आह । सत्त्वादिति साधनस्य साध्यं कि क्षणिकं तस्य विपर्यये नित्ये बाधकप्रमाणस्याप्रकाशने विरोधो नास्ति । नित्ये सत्त्वादित्यस्य हेतोः प्रकाशने कृते सति नित्योपि सन् स्यात् कृतको वा स्यादिति संदेहस्य प्रवृत्तिरेव । यत एवं ततोऽन्वये सन्देहो भवतु तथापि व्यतिरेकस्य संदेहोदयं हेतुर्हेत्वाभासषुस्यात् । (दि० प्र०) 22 नित्ये। 23 सति। 24 विपक्षेण सह साधनस्य । 25 सत्त्वादिति हेतोः। 26 घटादिपदार्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy