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________________ जयपराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद [ ३६ [ जैनाचार्येण कथितं समर्थनमपि वचनाधिक्यं नामदूषणं भविष्यति न हि बौद्धस्य ___ समर्थनस्य समर्थनं कृत्वा तद्दोषं न मन्यते । ] स्यान्मतं', 'समर्थनं नाम हेतोः साध्येन 'व्याप्ति प्रसाध्य धर्मिणि भावसाधनम् । यथा यत्सत् कृतकं वा तत्सर्वमनित्यं यथा घटादिः, सन् कृतको वा शब्द इति । सन् कृतको वा शब्दः, यश्चैवं स सर्वो नश्वरो यथा घटादिरिति वा, प्रयोगक्रमनियमाभावादिष्टार्थ सिद्धरुभयत्राविशेषात्, प्राक् सत्त्वं मिणि प्रसाध्य साधनस्य पश्चादपि साध्येन [जैनाचार्य कहते हैं कि समर्थन भी वचनाधिक्य नामका दूषण हो जाएगा, तब बौद्ध समर्थन का समर्थन करके उसको दोष नहीं मानता है। जैन-उसी प्रकार से मंदमति को समझाने के लिये ही प्रतिज्ञा का प्रयोग स्वीकार करने में आपको क्या असंतोष है ? बौद्ध हेतु की साध्य के साथ अविनाभावरूप व्याप्ति को सिद्ध करके धर्मी में हेतु के अस्तित्व को सिद्ध करना ही समर्थन का लक्षण है अर्थात् समर्थन, वचनाधिक्य नाम का दूषण नहीं है क्योंकि समर्थनपक्ष धर्मत्व आदि में अंतर्भूत हो जाता है। यथा जो सत् अथवा कृतक है वह सभी अनित्य है जैसे घटादि । सत् अथवा कृतक शब्द है यह उपनय प्रयोग है या सत् अथवा कृतक शब्द है और जो इस प्रकार है वह सभी नश्वर हैं जैसे घटादि । भावार्थ - नैयायिकों के यहाँ सोलह पदार्थों में 'निग्रहस्थान' अंतिम पदार्थ माना गया है उस निग्रहस्थान के उनके यहाँ २२ भेद माने हैं। उन २२ भेदों के अंतर्गत ११वें और १२वें निग्रहस्थानों के नाम 'न्यून' और 'अधिक' हैं । यहाँ बौद्ध भी 'वचन अधिक बोलना' इसको निग्रहस्थान कह रहे हैं। इनका कहना है कि अन्वय और व्यतिरेक इन दो के प्रयोग में किसी एक का ही प्रयोग करना उचित है दोनों के प्रयोग करने से निग्रहस्थान नाम का दोष आता है। नैयायिक ने अनुमान के ५ अवयव माने हैं प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । उनका कहना है कि इन पांचों में से यदि एक 1 सौगतस्य समर्थनं निग्रहाय न भवतीति प्राह। 2 समर्थनं नाम वचनाधिक्यं नाम दूषणं न भवति यतः समर्थन पक्षधर्मत्वादावन्तर्भवति । 3 किम् । (ब्या० प्र०) 4 साध्यसाधनयोः संबन्धर्मिणि भावसाधनं समर्थनम् । (दि० प्र०) 5 शब्दादी। 6 अस्तित्वसाधनम् । 7 हेतोः समर्थनं किमित्युक्ते साध्येन कृत्वा संबन्धं साधयित्वा धमिणि पर्वतादी अग्न्याद्यर्थसाधनं हेतुसमर्थनं ज्ञेयम् । यथा शब्द: पक्षोऽनित्यो भवतीति साध्यो धर्मः । सत्त्वात् कृतकत्त्वाद्वा । यत्सत् कृतकं वा तत्सर्वमनित्यं यथा घटादिः । सत् कृतको वा शब्द इति उपनयः । अथवा सन् कृतको वा शब्दोयंयश्चैवं स सर्वोनश्वरो यथा घटादि इति वा प्रतिपादनानुक्रमनियमाभावात् । अभिमतार्थः सिद्धयत्युभयत्र पूर्वोक्तप्रकारयोयोविशेषाभावात् । (दि० प्र०) 8 अथ धर्मिणि भावसाधनपूर्वकं हेतोः साध्येन व्याप्ति प्रसाधयति । (दि० प्र०) 9 हेतोः समर्थनं किमित्त्युक्ते स्याद्वाद्याह । सौगतमतमाश्रित्य हेतोः समर्थनं प्रपञ्चयति । (दि० प्र०) 10 व्याप्तिप्रसाधनपूर्वकमेव धम्मिण्यस्तित्वप्रसाधनं साधनस्येत्यस्य नियमस्याभावात् । (ब्या० प्र०) 11 इष्टःक्षणिकत्वम् । 12 उदाहरणद्वयनिरूपणप्रकारद्वये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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