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________________ ४२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ७ साधनधर्ममात्रान्वयः साध्यधर्मस्य स्वभावहेतुलक्षणं सिद्धं भवति । 'अत्राप्य दर्शनमप्रमाणं' यतः क्रमयोगपद्यायोगस्यैवासामर्थ्यन10 व्याप्त्यसिद्धेः पूर्वस्यापि हेतोः सत्त्वादेर्न 1'व्याप्तिसिद्धिः । पुनरिहापि साधनोपगमेनवस्थाप्रसङ्गा4 इति न चोद्यम्", इष्टस्याभाव16साधनस्यादर्शनस्य 17प्रमाणत्वाप्रतिषेधात् । 18यददर्शन19 20विपर्ययं साधयति हेतो:21 22साध्यविपर्यये तदपि 24विरुद्धप्रत्युपस्थानाबाधकं प्रमाणमुच्यते । 26एवं हि स हेतु: साध्याभावेऽसन् पुनः नित्यरूप पदार्थ से सत्त्व लक्षण हेतु की व्यावृत्ति में संदेह होने से आपका "सत्त्वात्" यह हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास हो जावेगा क्योंकि नित्य पदार्थ में सत्त्व अथवा कृतकत्व के अदर्शनमात्र-न दिखने मात्र से ही उस नित्य से सत्त्वादि हेतु की व्यावृत्ति नहीं हो सकती है । अर्थात् जैन कहते हैं कि आप बौद्धों ने 'सत्त्वात्' हेतु का साध्य क्षणिक माना है। पुनः क्षणिक से विपरीत नित्य साध्य में बाधक प्रमाण को नहीं दिखाया है इसलिये 'सत्त्वात्' हेतु से नित्य को साध्य करने में विरोध नहीं आता है । नित्य में सत्त्व हेतु को प्रकाशित करने पर नित्य में भी ये नित्य पदार्थ सत् हो सकते हैं या कृतक हो सकते हैं इस प्रकार से संदेह बना ही रहेगा और तब व्यतिरेक के संदेह से यह हेतु हेत्वाभास ही हो जावेगा। विप्रकृष्ट पदार्थ असर्वदर्शी--अल्पज्ञ को नहीं दिखते हैं अतः न दिखने मात्र से उनका अभाव नहीं हो सकता है । यथा पूर्व भाग को देखने वाले मनुष्य ने पश्चिम भाग नहीं देखा है तो भी वह पश्चिमभाग विद्यमान है उसी प्रकार से कोई पदार्थ विद्यमान होते हुये भी दीखते नहीं हैं। इतनेमात्र से उनका अभाव सिद्ध नहीं कर सकते हैं। बौद्ध-नित्य वस्तु में बाधक प्रमाण विद्यमान है, यथा जिसमें क्रम या युगपद् से अर्थक्रिया नहीं है उसकी कहीं भी साध्य रूप कार्य में सामर्थ्य नहीं है अर्थात् जिसमें क्रम अथवा युगपत् से अर्थक्रिया नहीं हो सकती है वह कहीं पर भी साध्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता है और अक्षणिक-नित्य में क्रम एवं युगपद् का अभाव है इस प्रकार प्रवर्तमान असामर्थ्य (अर्थ क्रिया का न करना) नित्य में 1 मात्रशब्दः कात्स्न्ये । यावन्तः साधन (सत्त्व) धर्मास्तावत्सुसाध्यधर्मस्यान्वय इत्यर्थः। 2 क्षणिकत्वस्य । 3 सत्त्वादिति। 4 बाधकप्रमाणेपि। 5 तत्रापि इति पा० । (दि० प्र०) ननु सौगत: । (दि० प्र०) 6 नित्ये विपक्षे । क्रमयोगपद्ययौगस्य। पक्षप्रत्यक्षात सत्वं क्षणिकं न दश्यते तथाऽदर्शनात सत्वं क्षणिकं न दश्यते तस्माददर्शनं प्रमाणं न । (दि० प्र०) 7 सौगतस्य । (दि० प्र०) 8 क्रमयोगपद्याभ्यामस्यैवासामोन । इति पा० (दि० प्र०) 9 सत्त्वकृतकत्वादेः। 10 असत्त्वलक्षणेन । (दि० प्र०) 11 अनित्येन । (दि० प्र०) 12 साधनस्यानुपलब्धिसाधनं सौगतस्याप्रमाणम् । 13 बाधनोपगमे इति वा पाठः। 14 स्याद्वादी। (दि० प्र०) 15 सौगतो वक्ति इति न चोद्यमित्यादि। 16 दृश्यानुपलब्धिलक्षणस्य। 17 ता। (दि० प्र०) 18 प्रमाणत्वाप्रतिषेधमेव दर्शयति । 19 नित्ये क्रमयोगपद्ययोगस्यादर्शनम् । 20 दृश्यविषयत्वम् (क्षणिकम्)। 21 क्रमयोगपद्यायोगलक्षणस्य । 22 साध्यस्य असामर्थ्यस्य विपर्यये सामर्थ्य सल्लक्षणे । 23 एवमपि। (दि० प्र०) 24 क्रमयोगपद्याऽयोगेन विरुद्धः क्रमयोगपद्ययोगः। 25 क्षणिके । (दि० प्र०) 26 अदर्शनस्य विपक्षे बाधकप्रमाणत्वप्रतिपादनप्रकारेण । 27 नित्यमर्थक्रियाकारि न भवति, क्रमयोगपद्यायोगादित्ययं हेतुः साध्यस्य असामर्थ्यस्य अभावे क्षणिक स्वलक्षणे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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