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कारिका २ - आप्त की परीक्षा ]
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तर्ह्यन्त रंगबहिरंगविग्रहादिमहोदयेनान्यजनाति शायिना' सत्येन ' स्तोतव्यहं महानिति भगवत्पर्यनुयोगे सतीव प्राहुः :
अध्यात्मं बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः ।
दिव्यः सत्यो 'दिवौकस्स्वाप्यस्ति' 'रागादिमत्सु सः ॥ २ ॥
आत्मानमधिश्रित्य
प्रथम परिच्छेद
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वर्त्तमानोऽध्यात्ममन्त रंगो विग्रहादिमहोदयः शश्वन्निःस्वेदत्वादिः
हैं अतः हम लोगों के लिये पूज्य हैं क्योंकि मायावीजनों में ये विभूतियां नहीं पाई जाती हैं, ऐसा अर्थ करके परस्पर में समाधान कर देने पर श्री विद्यानन्द स्वामी कहने लगे कि यह "विभूतिमत्व" हेतु अन्य के भी आगम में चला जाता है । अतः विपक्ष में चले जाने से यह व्यभिचारी है क्योंकि सभी मतावलंबी जन अपने-अपने आगम को प्रमाण मानते हैं । जो हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्ष तीनों में रहे वह हेतु व्यभिचारी कहलाता है जैसे कि “आकाश नित्य है क्योंकि वह ज्ञान का विषय है” अब यहाँ ज्ञान का विषय रूप "ज्ञेयत्व" हेतु व्यभिचारी है । क्योंकि यह घट पट आदि अनित्य पदार्थों में भी पाया जाता है । तथा " इस पर्वत पर अग्नि है क्योंकि धूमवाला है" यहाँ यह धूमवत्व हेतु पक्षरूप पर्वत पर है एवं सपक्ष रूप रसोईघर में भी है तथा विपक्षभूत तालाब में नहीं है अतः यह हेतु व्यभिचारी नहीं है । उपर्युक्त व्यभिचारी हेतु का दूसरा नाम अनैकांतिक भी है।
उत्थानिका - पुनः मानो साक्षात् भगवान ही समन्तभद्र स्वामी से प्रश्न कर रहे हैं - कि हे समन्तभद्र ! बाह्य विभूति से तुमने हमें नमस्कार नहीं किया तो न सही, किन्तु अन्य मस्करी पूरण आदि जनों में नहीं पाये जाने वाले, ऐसे वास्तविक अन्तरंग, बहिरंग विग्रहादि महोदय हैं, उनके द्वारा तो मैं तुम्हारे स्तवन करने योग्य महान अवश्य ही हूँ ।
इस प्रकार के प्रश्न करने पर ही मानों समन्तभद्र स्वामी कहते हैं :
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कारिकार्थ - अंतरंग विग्रह आदि महोदय - निरन्तर पसीना रहितपना आदि एवं बहिरंगगन्धोदक वृष्टि आदि महोदय जो कि दिव्य हैं, सत्य अर्थात् वास्तविक हैं । इस प्रकार अन्तरंग, बहिरंग शरीर आदि महोदय भी मस्करीपूरण आदि में न होते हुए भी रागद्वेष-युक्त देवों में पाये जाते हैं, इसलिए भी हे भगवन् ! आप महान् नहीं हैं ॥ २ ॥
1 मष्करिपूरणाद्यन्यजनेभ्योतिशयवता । 2 परमार्थभूतेन । 3 अहं पक्षः महान् भवामीति साध्यो धर्मः अन्तरङ्गबहिरङ्गविग्रहादिमहोदय सद्भावान्यथानुपपत्तेः । 4 प्रश्ने । 5 अक्षीणकषायेषु देवेषु । 6 वर्त्तते यस्मात्तस्मात्त्वं महान्न । अथवा किमस्तीति काकुः नास्तीत्यर्थः । अतस्त्वं महानस्माकमसीत्यभिप्रायो भगवतः । 7 आदिशब्दान्मोहद्वेषमदाहङ्काराणां ग्रहणम् ।
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