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अष्टसहस्री
[ कारिका २
परानपेक्षत्वात् । ततो बहिर्गन्धोदकवृष्ट्यादिर्बहिरंगो देवोपनीतत्वात् । स च सत्यो मायाविष्वसत्त्वात् । दिव्यश्च मनुजेन्द्राणामप्यभावात् । स एष बहिरन्तःशरीरादिमहोदयोपि' पूरणादिष्वसम्भवी व्यभिचारी स्वर्गिषु भावादक्षीणकषायेषु । 'ततोपि न भवान् परमात्मेति स्तूयते *।
[ अत्र कश्चित्तटस्थजैनः महोदयत्वहेतु निर्दोषं साधयति ] अथ यादृशो घातिक्षयजः स भगवति न तादृशो देवेषु 'येनानकान्तिकः स्यात् । दिवौकस्स्वप्यस्ति ? रागादिमत्सु स नैवास्तीति व्याख्यानादभिधीयते
[ पुनरपि आचार्या हेतुं सदोष साधयंति ] तथाप्यागमाश्रयत्वादहेतुः पूर्ववत् । ननु प्रमाणसंप्लववादिनां10 प्रमाणप्रसिद्धप्रामाण्या
आत्मा का आश्रय लेकर जो होवे उसे अध्यात्म कहते हैं अर्थात् अन्तरंग शरीरादि महोदय मेशा मल-मत्र, पसीना आदि से रहित अवस्था विशेष, जो कि पर मंत्रादि किसी की भी अपेक्षा नहीं रखते हैं उससे भिन्न बाह्य-गन्धोदक, पुष्प वृष्टि आदि बहिरंग महोदय होते हैं जो कि देवों के द्वारा किये जाते हैं। ये दोनों प्रकार के महोदय सत्य (वास्तविक) हैं, क्योंकि ये मायावी जनों में नहीं पाये जाते हैं और दिव्य हैं क्योंकि चक्रवर्ती आदि महापुरुषों में भी इनका अभाव है। इस प्रकार ये "बहिरंग, अंतरंग शरीरादिक महोदय" भी मस्करीपूरण आदि में असम्भव हैं, तो भी रागादिमान्कषाय सहित देवों में पाये जाते हैं अतः व्यभिचारी हैं, इसलिए इस हेतु के द्वारा भी आप परमात्मा नहीं हैं अतः मेरे द्वारा स्तुत्य नहीं हैं।
[ यहाँ कोई तटस्थ जैनी "विग्रहादि महोदयत्वात्" हेतु को निर्दोष सिद्ध करता है ]
अब कोई तटस्थ जैनी कहता है कि जिस प्रकार का घातिया कर्म के क्षय से होने वाला अतिशय भगवान् में है, उस प्रकार का देवों में नहीं है जिससे कि यह विग्रह आदि महोदय हेतु अनेकान्तिक होवे, अर्थात् यह हेतु व्यभिचारी नहीं है तथा यह विग्रहादि महोदय रागादिमान देवों में हैं ? अर्थात् नहीं हैं। इस प्रकार वक्रोक्ति रूप व्याख्यान के द्वारा अर्थ करने से आगम में भी बाधा नहीं आती है।
[ पुनः आचार्य हेतु को सदोष सिद्ध करते हैं ] इस पर आचार्य श्री विद्यानन्दि स्वामी कहते हैं कि यह हेतु भी पूर्ववत् आगमाश्रय होने से अहेतु है, क्योंकि यह हेतु विपक्ष में नहीं रहता है, यह कैसे जाना जाये। कोई कहता है कि आप जैनी
1 मन्त्राद्यनपेक्षत्वात् । 2 चक्रवर्त्यादीनाम् । 3 अहं धर्मी महान् भवामि अंतरंगबहिरंगमहोदयसद्भावान्य थानुपपत्तेः (ब्या० प्र०)। 4 हेतोर्व्यभिचारित्वात् । 5 यदि। आह स्वमतवर्ती। 6 विग्रहादिमहोदयः। 7 न केनापि । 8 किमस्तीति काकु: नास्तीत्यर्थः । 9 सोपि प्रकृतहेतुं विपक्षासम्भविनं कुतः प्रतीयादित्यादिसम्बन्धनीयम् । 10 बहूनां प्रमाणानामेकस्मिन्नर्थे प्रवृत्तिः प्रमाणसम्प्लवः । जनानाम् ।
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