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अष्टसहस्री
[ कारिका १-आप्त की परीक्षा [ पुनरप्याचार्यास्तर्केण हेतोय॑भिचारं साधयंति ] सोपि कुतः प्रमाणात्प्रकृतहेतुं विपक्षासम्भविनं प्रतीयात् ? न तावत्प्रत्यक्षादनुमानाद्वा तस्य तदविषयत्वात् । नाप्यागमादसिद्ध प्राणाण्यात्तत्प्रतिपत्तिरतिप्रसंगात् । 'प्रमाणतः सिद्धप्रामाण्यादागमात्तत्प्रतिपत्तौ ततः 'साध्यप्रतिपत्तिरेवास्तु परम्परापरिश्रमपरिहारश्चैवं1 प्रतिपत्तुः स्यात् । ततः12 सूक्तं सर्वथा नातो हेतोस्त्वमसि नो महांस्तस्यागमाश्रयत्वादिति ।
[ पुन: आचार्य तर्क द्वारा हेतु को व्यभिचारी सिद्ध करते हैं ] इस पर श्री विद्यानन्दि स्वामी प्रश्न करते हैं कि आप किस प्रमाण से प्रकृत हेतु (देवागमनादि) को विपक्ष में असंभवी निश्चित करते हैं-प्रत्यक्ष से या अनुमान से ?
इन दोनों प्रमाणों से भी चामरादि विभूतिमत्व हेतु की सिद्धि नहीं हो सकती है और सिद्ध नहीं है प्रमाणता जिसकी, ऐसे आगम से भी यह हेतु विपक्ष-व्यावृत्ति रूप सिद्ध नहीं हैं । यदि आप कहें अनुमान प्रमाण से सिद्ध है प्रमाणता जिसकी, ऐसे आगम से इस हेतु को सिद्ध करेंगे तो इस आगम से महानपने रूप साध्य की ही सिद्धि हो जावे जिससे कि प्रतिपत्ता-ज्ञाता के परम्परा से होने वाले परिश्रम का परिहार हो जाता है। अर्थात् आगम से विभूतिमत्व हेतु की सिद्धि, पुनः इस हेतु से भगवान के महानपने रूप साध्य की सिद्धि होती है। अतः इस परम्परा परिश्रम से कोई प्रयोजन नहीं है । किन्तु स्वयं आगम से ही साध्य की सिद्धि कर सकते हैं, इसलिए यह ठीक ही कहा है कि सर्वथा इस 'विभूतिमत्वादि' हेतु से आप हम लोगों के लिए महान् नहीं हैं क्योंकि यह हेतु आगमाश्रित है।
___ भावार्थ-ग्रन्थकर्ता का कहना है कि विभूतिमत्व हेतु से हम भगवान को महान समझकर नमस्कार नहीं करते है। इस पर कोई जैन ही कह देता है कि जैसी विशेष एवं सच्ची विभूतियाँ अहंत भगवान् में हैं वैसी अन्य मायावी जनों में हो ही नहीं सकती हैं। इस पर कोई दूसरा तटस्थ । 'जन उत्तर देता है कि पुनः इस हेतु को व्यभिचारी मत मानिये एवं कारिका के अर्थ में 'न' शब्द को
"मायाविष्वपि" के साथ लगाकर अर्थ कर लीजिये, जिससे भगवान् अहंत इन विभूतियों से ही महान्
1 देवागमादिहेतुम् । 2 मष्करिष्वसम्भविनम् । 3 निश्चीयात् । 4 विभूतिमत्त्वादिहेतोः। 5 तयोः प्रत्यक्षानुमानयोरगोचरत्वात् प्रत्यक्षाच्चामरादिविभूतिर्न दृश्यते नाप्यनुमानेन हेतोरसिद्धेरिति प्रत्यक्षानुमानाभ्यां हेतुरयं गोचरो न। 6 असिद्धप्रमाणत्वादागमात्तस्य हेतोः परिज्ञानं चेत्तदातिप्रसङ्गः। 7 अयमागमो धर्मी प्रमाणं भवितुमर्हति पूर्वापरविरोधरहितत्वादित्यनुमानात् प्रमाणात् । 8 यदि प्रमाणादागमसिद्धिरागमात्साध्यसिद्धिर्हेतुना कि प्रयोजनम् (ब्या० प्र०)। 9 महानिति । 10 आगमाद्धेतुप्रतिपत्तिस्ततः साध्य सिद्धिरिति परम्परापरिश्रमस्तस्यपरिहारः । 11 आगमात्साध्य प्रतिपत्तिप्रकारेण । 12 निविशेषे सति विशेषव्याख्यानद्वयस्यागमाश्रितत्वं यतः ।
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