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________________ आप्त की परीक्षा ] प्रथम परिच्छेद [ विभूतिमत्त्वहेतोनिर्दोषत्व साधने युक्तिः ] परमार्थपथप्रस्थायियथोदितविभूतिमत्त्वस्य हेतोर्मायो' पर्दाशततद्विभूतिमद्भिर्मायाविभिन व्यभिचारः सत्यधूमवत्त्वादेः पावकादौ साध्ये स्वप्नोपलब्धधूमादिमता देशादिनानकान्तिकत्वप्रसंगात् सर्वानुमानोच्छेदात् । ... [ तटस्थजनेन समाधानजनकं प्रत्युत्तरं कारिकाया द्वितीयोऽर्थश्च ] इति चेत् तहि मा भूदस्य हेतोर्यभिचार: पारमाथिक्यः पुरन्दरभेरीनिनादादिकृत'प्रतिघातागोचरचारिण्यो यथोदितविभूतयस्तीर्थकरे भगवति त्वयि तादृश्यो मायाविष्वपि नेत्य तस्त्वं महानस्माकमसीति व्याख्यानाद्ग्रन्थविरोधाभावादिति' कश्चित्, ___यह हेतु भी आगमाश्रित है इसलिए यह हेतु प्रतिवादी को प्रमाण रूप से मान्य नहीं है, क्योंकि वे लोग भी अपने आगम को प्रमाण मानते हैं। अत: विपक्ष में चले जाने से यह हेतु गमक (अपने साध्य को सिद्ध करने वाला) नहीं हो सकता है । उनके आगम में भी चले जाने से इस हेतु में विपक्षवृत्तित्व सिद्ध ही है। [ विभूतिमत्त्व हेतु को निर्दोष मानने में युक्ति ] अब कोई प्रश्न करता है कि वास्तविक आगम कथित विभूतिमान् जो हेतु है वह माया से उपदर्शित विभूति वाले मायावी जनों के साथ व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि मायावी जनों में उस प्रकार की विभूतियाँ नहीं पाई जाती हैं, यदि ऐसा नहीं मानोगे तो सत्य भूमवत्वादिक हेतु से अग्नि आदि साध्य के सिद्ध करने में स्वप्न में उपलब्ध हुए धूमादिमान प्रदेशादिक से भी व्यभिचार मानना पड़ेगा और पुनः सभी अनुमानों का उच्छेद हो जायेगा। [ तटस्थ जैनी द्वारा समाधान जनक उत्तर एवं कारिका का द्वितीय अर्थ ] अब यहाँ कोई तटस्थ जैनी उत्तर देता है कि यदि ऐसी बात है तो इस "देवागमत्व हेतु को व्यभिचारी मत मानिये, किन्तु ऐसा अर्थ कर लीजिए कि देवादिकों के भेरी निनाद आदि के द्वारा होने वाली एवं विनाश को न प्राप्त होने वाली, ऐसी वास्तविक, यथोदित (शास्त्र में कही गई) विभूतियाँ जिस प्रकार की आप तीर्थंकर भगवान् में है, उस प्रकार की मायावी जनों में नहीं हैं। अतएव आप हम लोगों के लिए महान् हैं-इस श्लोक का ऐसा अर्थ करने पर ग्रन्थ में भी विरोध नहीं आता है। ___1 माययोपदर्शिताश्च तास्तद्विभूतयो देवागमादिविभूतयस्तास्सन्ति येषां मायाविनां ते मायोपर्दाशततद्विभूतिमन्तस्तैः। 2 अत्राह कश्चित्स्वमतवर्ती 'हे समन्तभद्राचार्या ! मायाविभिः कृत्त्वास्य हेतोर्व्यभिचारो नास्ति तदेव सत्यधूमवत्त्वादेरित्यादिना दर्शयति । 3 सर्वानुमानोच्छेदापत्तेः- इति पाठांतरम् (ब्या० प्र०)। 4 देवागमादिमत्त्वस्य । 5 विनाश। 6 मायाविषु तादृश्यो विभूतयो न दृश्यन्ते । 7 इति हेतोः। 8 देवागमादिश्लोकस्यैवं व्याख्यानादित्यर्थः । 9 व्यभिचाराभावे देवागमेत्यादिग्रन्थविरोध इत्यत आह ग्रन्थबिरोधाभावात् । 10 तटस्थ: स्वमतवर्ती पृच्छति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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