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अष्टसहस्री
[ कारिका १देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः ।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते 'नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ देवागमादीनामादिशब्देन प्रत्येकमभिसम्बन्धनाद्देवागमादयो' नभोयानादयश्चामरादयश्च विभूतयः परिगृह्यन्ते ताश्च भगवतीव मायाविष्वपि मस्करिप्रभृतिषु दृश्यन्ते इति तद्वत्तया' भगवन्नोस्माकं परीक्षाप्रधानानां महान्न स्तुत्योसि । आज्ञाप्रधाना हि त्रिदशागमादिकं परमेष्ठिनः परमात्मचिन्हं प्रतिपद्येरन् नास्मदादयस्तादृशो मायाविष्वपि भावादित्यागमाश्रयोयं12 स्तवः * । श्रेयोमार्गस्य प्रणेता भगवान् स्तुत्यो महान् देवागमनभोयानचामरादिविभूतिमत्त्वाद्यन्यथानुपपत्तेरिति हेतोरप्यागमाश्रयत्वात् । तस्य च प्रतिवादिनः14 प्रमाणत्वेनासिद्धेः तदागमप्रामाण्यवादिनामपि विपक्षवृत्तितया गमकत्वायोगात् । तदागमादेव हेतोविपक्षवृत्तित्वप्रसिद्धेः ।
कारिकार्थ-आप के जन्म कल्याणक आदिकों में देवों का आगमन, आप का आकाश मार्ग में गमन एवं समवसरण में चामर छत्र आदि अनेक विभूतियों का होना आदि यह सब बाह्य वैभव मायावी विद्याधर मस्करी आदिकों में भी पाया जा सकता है अतः हे भगवन् ! हम लोगों के लिए आप महान् नहीं हैं, स्तुति करने योग्य नहीं हैं ।।१।।
__ इस कारिका के आदि पद को प्रत्येक पद के साथ लगाना चाहिए । इससे देव चक्रवर्ती आदिकों का आगमन, आकाश में गमन, चतुर्मुख आदि, चामर, छत्र, पुष्पवृष्टि आदि विभूतियाँ ग्रहण की जाती हैं-ये विभूतियाँ जिस प्रकार अहंत भगवान् में देखी जाती हैं उसी प्रकार मायावी मस्करी, पूरण आदिकों में भी पाई जा सकती हैं। इसलिए हे भगवन ! हम जैसे परीक्षा-प्रधानी महापुरुषों के लिए आप स्तुति करने योग्य नहीं हैं। हाँ! जो आज्ञा प्रधानी हैं वे ही अहंत भगवान के देवागम.
भोयान आदि वैभव को परमात्मा का चिह्न समझ कर नमस्कार करते हैं न कि हम जैसे परीक्षाप्रधानी जन, क्योंकि वैसा वैभव मायावी जनों में भी पाया जाता है। अतः इस प्रकार का स्तवन आगम के आश्रित है।* __यथा-"मोक्ष मार्ग के प्रणेता भगवान् स्तुति करने योग्य महान् हैं, क्योंकि देवागम नभोयान चामरादि विभूतियों का अन्यथा होना सम्भव नहीं है।"
1 इति हेतोः। अथवा देवागमादिविभूतितः। 2 वर्द्धमानः । 3 अस्माकं परीक्षाप्रधानानां समन्तभद्रादीनाम् । 4 चक्रवांगमादि। 5 चतुरास्यत्वादि। 6 सुरपुष्पवृष्ट्यादि। 7 देवागमादिविभूतियुक्तितया (ब्या०प्र०)। 8 परीक्षाप्रधानानां स्तुत्यो नासीत्यादि भावयति । 9 आज्ञावशवर्तिनः नान्यथाभाषितमिति वदंति शास्रविचारं न जानंतीति आज्ञासम्यक्त्ववशवर्तिनः। 10 देवागमादिचिह्नस्य। 11 इति हेतोः। 12 देवागमादिविभूतितस्त्वं महानित्ययम् । 13 महत्वाभावे (ब्या० प्र०)। 14 मीमांसकस्य । 15 जैनागमसत्यवादिनां स्याद्वादिनामपि विपक्षेषु मष्करिप्रभृतिषु प्रवर्त्तमानत्वाद्धेतोः साधकत्वासम्भवात् ।
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