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और ग्रन्थकर्त्ता का उद्देश्य ]
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'तदेवं निःश्रेयसशास्त्रस्यादौ तन्निबन्धनतया' मंगलार्थतया च ' मुनिभिः संस्तुतेन निरतिशयगुणेन भगवताप्तेन श्रेयोमार्गमात्महितमिच्छतां ' 'सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेष 7 प्रतिपत्त्यर्थमाप्तमीमांसां विदधानाः, श्रद्धागुणज्ञताभ्यां प्रयुक्तमनसः कस्माद् देवागमादिविभूतितोऽहं ' महान्नाभिष्टुत" इति स्फुटं पृष्टा" इव स्वामिसमन्तभद्राचार्याः प्राहुः
प्रथम परिच्छेद
उनकी परीक्षा नहीं की जा सकती है । यदि श्रद्धा या गुणज्ञता इन दोनों गुणों में से एक गुण नहीं हो तो भी आप्त की परीक्षा नहीं हो सकती है । इस कथन से यह जाना जाता है कि श्री समंतभद्र स्वामी भगवान् के गुणों में विशेष रूप से अनुरक्त हो करके ही व्यंग्यात्मक शैली से आप्त की परीक्षा के बहाने से उनके महान् गुणों की स्तुति कर रहे हैं । इससे यह भी ध्वनित हो जाता है कि जो व्यक्ति किसी देव, शास्त्र या गुरुओं की परीक्षा को करने में रुचि रखते हैं तो सबसे पहले उन्हें श्रद्धालु एवं गुणग्राही होना चाहिये न कि अश्रद्धालु अथवा दोषज्ञ, क्योंकि मात्र दोषग्राही व्यक्ति किसी के गुणों की परीक्षा करने में या किसी के गुणों का मूल्यांकन करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं, क्योंकि दोषग्राही बुद्धि से तो सामने वाले के गुणों में भी दोषारोपण कर दिया जाता है अतः परीक्षा करने में कुशल, अधिकारी व्यक्ति को ही किसी की परीक्षा में कदम उठाना चाहिये क्योंकि सभी को सभी की परीक्षा का अधिकार नहीं है ।
उत्थानका – इस प्रकार से निःश्रेयस शास्त्र ( मोक्षमात्र ) के आदि में मोक्ष के लिये जो कारण भूत हैं और श्री उमास्वामी आचार्य के द्वारा स्तुति को प्राप्त अतिशय गुण सहित जो भगवान आप्त हैं, उन्होंने श्री समंतभद्र स्वामी से यह प्रश्न किया है । कैसे हैं समन्तभद्र स्वामी ? मोक्षमार्ग ही आत्मा का हित है इस प्रकार स्वीकार करने वाले शिष्यों को सम्यक् उपदेश और मिथ्या उपदेश को जानकारी के लिये आप्तमीमांसा को करते हुए श्रद्धा और गुणज्ञता से जिनका मन युक्त है - उनसे ने प्रश्न किया कि हे समन्तभद्र ! "देवागम आदि विभूति से मैं महान हूँ पुनः आप मेरी स्तुति क्यों नहीं करते हैं ?" इस प्रकार स्पष्टतया भगवान के प्रश्न करने पर ही मानों समन्तभद्र स्वामी कहते हैं
भगवान्
1 ननु च मीमांसितं, परीक्षा, विचार इत्यनर्थान्तरं तच्च वादिप्रतिवादिभ्यां भवितव्यम् । तथा च सति समन्तभद्राचार्यस्य महावादिनः प्रतिवादी न कश्चिन्मनुष्यमात्रः सम्भवत्येव (अवटुतटमटति झटिति स्फुटतटवाचाटधूर्जटेजिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे कान्येषां संकथा तत्र ) ततः कथमाप्तमीमांसाविधानमुपपद्यते इति पृष्टः सन्नाचष्टे तदेवमित्यादि । तदेवमुक्तन्यायेनेत्यर्थः । 2 तत्त्वार्थसूत्रस्य । 3 मोक्षनिमित्तं मङ्गलनिमित्तमाचार्याः शास्त्रं कुर्वन्ति । 4 उमास्वामिपादैः गृद्धपिच्छाचार्यापरनामधेयैः "आचार्य कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः । एलाचार्यो गृद्धपिच्छ: पद्यनन्दी वितन्यते" ॥१॥ " तत्त्वार्थ सूत्रकर्तृ त्वात्प्रकटीकृतसन्मतः । उमास्वामिपदाचार्यो मिथ्यात्वतिमिरांशुमान् ||२|| ( टिप्पण्यन्तरम्) । 5 विनेयानाम् । 6 यसः (द्वन्द्वसमासः) । 7 अर्थविशेषप्रतिपत्त्यर्थं शास्त्रन्यायानुसारितया तथैवोपन्यासादिति पूर्वोक्तभाष्यांशविवरणमिदम् । एवं यथायोग्यं ज्ञातव्यम् । 8 कुर्वाणाः समन्तभद्राचार्याः । 9 जिन, परमेष्ठी । 10 तत्त्वार्थसूत्रकारः । 11 मोक्षमार्गस्य नेता कर्मभूभृतां भेत्ता विश्वतत्त्वानां ज्ञातेति विशेषणत्रयेणाहं स्तुतः सूत्रकृता भो समन्तभद्राचार्या देवागमादिविभूत्या त्वं महानिति कुतोहं नाभिष्टुत इति पृष्टा इव ।
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