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अष्टसहस्री
[ मंगलाचरण का महत्व
ग्रन्थकारस्य श्रद्धागुणज्ञतालक्षणे प्रयोजने साध्ये शास्त्रारम्भस्तवविषयाप्तगुणा तिशय परीक्षोपक्षेपस्य साधनत्वसमर्थनात् । शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितमिदं शास्त्रं देवागमाभिधानमिति निर्णयः । मङ्गलपुरस्सरस्तवो हि शास्रावताररचितस्तुतिरुच्यते । मंगलं पुरस्सरमस्येति मङ्गलपुरस्सरः शास्रावतारकालस्तत्र रचितः स्तवो मंगलपुरस्सरस्तवः इति व्याख्यानात् । तद्विषयो यः परमाप्तस्तद्गुणातिशयपरीक्षा तद्विषयाप्तमीमांसितमेवोक्तम् ।
इस प्रकार से ग्रंथकार ने श्रद्धा, गुणज्ञता लक्षण प्रयोजन रूप साध्य में शास्त्र के प्रारम्भ में रचित स्तव के विषय को प्राप्त परम आप्त के गुणातिशय की परीक्षा की स्वीकारता को हेतु बनाया है । शास्त्र के आदि में रचित स्तुति के विषय को प्राप्त आप्त की मीमांसा रूप यह शास्त्र "देवागमस्तोत्र" इस नाम का है-यह निर्णय हुआ क्योंकि मंगल-पूर्वक स्तव ही शास्त्र के आदि में रचित स्तुति कहलाती है। मंगल है पूर्व में जिसके, उसे मंगलपुरस्सर कहते हैं। शास्त्र-रचना के प्रारम्भ में रचित मंगल पुरस्सर स्तव कहलाता है । उस स्तुति के विषयभूत परम आप्त भगवान्, उनके मोक्षमार्ग प्रणेतृत्त्वादि गुणातिशयों की परीक्षा ही तद्विषयक आप्तमीमांसा है।
भावार्थ--श्री विद्यानंद स्वामी का कहना है कि श्री वर्धमान भगवान्, सभी तीर्थंकरों का
एवं देवागम स्तोत्र के कर्ता श्री समंतभद्र स्वामी तथा उनके निर्दोष वचन इन सबकी मंगलाचरण के द्वारा मैंने स्तुति की है क्योंकि इनमें से किसी एक की भी स्तुति न करें तो इस आप्तमीमांसा की टीका को करने में हम समर्थ नहीं हो सकेंगे । एवं श्री भट्टाकलंक देव ने तो अष्टशती भाष्य में स्पष्ट ही कह दिया है कि इस ग्रंथ में आप्त-अहंत भगवान् की परीक्षा करने में श्रद्धा और गुणज्ञता ये दो ही प्रयोजन मुख्य हैं। यदि हमारे में श्रद्धा और भगवान के गणों का ज्ञान नहीं है तो कथमपि
1 ग्रन्थकार: पक्षः । 2 प्रेरकत्वे । 3 मोक्षमार्गस्येत्यादि । 4 मोक्षमार्गप्रणेतृत्वादि । 5 विरुद्धनानायुक्तिप्राबल्य (घटमानयोश्च) दौर्बल्यावधारणाय प्रवर्त्तमानो विचार: परीक्षा। सा खल्वेवं चेदेवं स्यादेवं चेदेवं न स्यादित्येवं प्रवर्तते । 6 स्वीकारस्य। 7 श्रद्धागुणज्ञतालक्षणं प्रयोजन पक्षः धमित्वं समन्तभद्राचार्यस्यास्ति । आप्तगुणातिशय परीक्षोपक्षे. पान्यथानुपपत्तेः । 8 अर्थस्यानुभवगम्यस्य परीक्षाविशेषस्य गुणातिशयपरीक्षोपक्षिप्तस्यास्यैव तावद्दे वागमाभिधानमिति निर्णयः। कथमिति चेदुच्यते । अस्य देवागमत्वान्निर्णये ग्रन्थकारस्य श्रद्धागुणज्ञतालक्षणे प्रयोजने साध्ये साधनमिदं न भवत्येव स्वरूपाभिद्धत्वात् । कथमिति चेदे॒वागममन्तरेणान्यस्य मोक्षशास्त्रारम्भरचित "मोक्षमार्गस्य नेतार" मित्यादिस्तवनविषयाप्तगुणातिशयपरीक्षारूपायाः समन्तभद्राचार्य कृतेः सर्वथाप्यसम्भवात् । निश्श्रेयसपूर्वोक्तशास्त्रशब्दस्यार्थीयम् । 9 एतच्च विभावयति । 10 नन्वेवमपि शास्त्रारम्भस्तवविषयपरमात्मगुणातिशयपरीक्षैव देवागमाभिधानं लब्धुमर्हति देवागमेत्यादिमङ्गलपुरस्सरस्तवविषयपरमात्मगुणातिश यपरीक्षामित्यनेन तयोरेकत्वेनाभिधानात्, न पुनः शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं देवागमाभिधान त। ततः कथमिदमुक्तम् ।-शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितमिदं शास्त्रम् । देवागमाभिधान मित्र तद्गुणातिशयपरीक्षातदाप्तमीमांसितयोरेकत्वे साधिते तदाप्तमीमांसितमपि देवागमाभिधानं भविष्यत्येवेति स्वीकृत्त्य तयोरेकत्वसमर्थनार्थमाह ।-मङ्गलपुरस्सरेत्यादि । 11 मोक्षमार्गप्रणेतत्वादि ।
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