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मंगलाचरण का विशेषार्थ ]
प्रथम परिच्छेद
लक्षण से विभूषित श्री वर्द्धमान भवगान् अंतिम तीर्थंकर अथवा संपूर्ण अर्हत्परमेष्ठी समुदाय को नमस्कार करके । पुन: कैसे हैं भगवान् ? “समंतभद्र' भद्र अर्थात् जिनके शतेन्द्रवंदित गर्भावतरण आदि कल्याणक हुये हैं, ऐसे भगवान् ही समन्तभद्र हैं। पुनः कैसे हैं भगवान् ? "उद्भूतबोध महिमानम्" जिनके केवज्ञान की महिमा-यथावत संपूर्ण वस्तुतत्व के प्रकाशन की महिमा प्रगट हुई है। इस विबेषण से अचल ज्योति: स्वरूप केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोकालोक को अवलोकन करने वाले हैं, यह प्रगट किया है। पुन: कैसे हैं भगवान् ? "अनिद्यवाचम्" अनेकान्त की नीति वही हुआ गंगाप्रवाह, उसमें अवगाहन करने वाली है वाणी दिव्यध्वनि जिनकी ऐसे भगवान् को। इस विशेषण से धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति स्वरूप भगवान के वचन हैं—यह स्पष्ट किया है।
[ अथवा इसी श्लोक से आचार्य समंतभद्र स्वामी को नमस्कार करते हैं- ] दूसरा अर्थ - श्री समंतभद्र स्वामी को नमस्कार करके । कैसे हैं समंतभद्र स्वामी ? "श्री वर्द्धमानम्' निर्दोष स्याद्वाद विद्या के वैभव की आधिपत्य-लक्षण लक्ष्मी से जो वृद्धि को प्राप्त हैं। पुन: कैसे हैं ? "उद्भूत-बोध-महिमानम्' भव्य जीवों को इस कलिकाल में भी कलंक रहित निर्दोष विद्या को प्रगट करने के लिए स्याद्वाद तत्व को प्रगट करने में जिनका ज्ञान समर्थ है । पुन: कैसे हैं ? "अनिंद्यवाचम्" सप्तभंगी से युक्त आप्तमीमांसा नाम की स्तुति जिन्होंने रची है, ऐसे
मानं केवलजानं यस्यासौ वर्द्धमानः । अवाप्योरल्लोप इत्यवशब्दस्याकारलोपः । श्रिया बहिरङ्गया चान्तरङ्गया समवसरणानन्तचतुष्टयलक्षणया चोपलक्षितो वर्द्धमानः श्रीवर्द्धमानोऽर्हत्समुदय इति व्युत्पत्तेः । अनेन परमार्हतां समुदयमिति वृत्तिकारोक्तप्रतिज्ञाश्लोकनमस्कृतौ विशेष्यमुपात्तम् ।कथम्भूतम् ? समन्तभद्रम् समन्ताद्भद्राणि शतमखशताभिवन्दितानि गर्भावतरणमहिमादिकल्याणानि यस्य तम् । अनेनाखिलैरिन्द्रादिभिर्वन्दितमिति विशेषणमुपगृहीतम् । भूयः कथम्भूतम? उद्भूतः प्रसिद्धो बोधस्य महिमा वस्तुयाथात्म्यप्रकाशनसामर्थ्यलक्षणो यस्य तम् । अनेनाचलज्योतिर्बलत्केवलालोकालोकितलोकालोकमिति विशेषणं स्वीकृतम् अचनिधिज्योतिभिनिसवलता दीप्यमानेन केवलालोकेन केवलदर्शनेनालोकिती लोकालोको येन तमिति प्रतिपादनात । भूयोपि कथम्भूतम् ? अनिन्द्यवाचम् । अनिन्द्यानेकान्तनीतिगङ्गाप्रवाहावगाहिनी वाग वाणी यस्य तम् । अनेनोद्दीपीकृतधर्मतीर्थमिति विशेषणमात्मीकृतम्। उद्दीपीकृतं धर्मप्रतिपादक तीर्थ शास्त्रं येनेति व्युत्पादनात् । भगवान् श्रीवर्द्धमान: कल्याणसम्पदाशंसिनामभिवन्द्यः सकलकल्याणसम्पदभिरामत्वात् । यथा सकललक्ष्मीसम्पदभिरामः सार्वभौमो लक्ष्मीसम्पदाशंसिनामिति स्वभावलिङ्गजनितमनुमानम् । सकलकल्याणसम्पदभिरामोऽयमुद्भूतबोधमहिमत्वादिति कारणसहचरलिङ्गजनितं केवलज्ञानोदयसहभाविनस्तीर्थकरपुण्योदयात् सकलकल्याणाभिरामपरमार्हन्त्यलक्ष्मीसम्पत्संयुतः सर्वत्रोद्भूतमहिमायं तत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वात् । यथवागदङ्कारकर्मणि युक्तिशास्त्राविरोधिवाग्भिषग्वरस्तत्रोद्भूतमहिमेति कार्यलिङ्गजनितं महीयसां वचनातिशयस्य प्रज्ञातिशयनिबन्धनत्वादिति । एवमुत्तरत्र व्याख्याद्वयेपि यथासम्भवं हेतूपन्यासः प्रतिपत्तव्यः ।
__अथवा अभिवन्ध । कम् ? समन्तभद्रं समन्तभद्राचार्यम् । कीदृशम् ? श्रीवर्द्धमानं श्रिया दिखिलविद्यालङ्कारनिरवद्यस्याद्वादविद्याविभवाधिपत्यलक्षणया लक्ष्म्या वर्द्धमान मेधमानम् । साक्षात्कृतसकलवाङ्मयत्वेन समस्त विद्याविद परमैश्वर्य मातिष्ठमानस्य स्याद्वादविद्यानगुरोर्महामुनेः श्रीवर्द्धमानतायां विवादाभावात् । भूयः कीदृशम् ? उद्भूतबोधमहिमानम् । उद्भतो बोधस्य महिमा भन्यानां कलिकालेप्यकलङ्कभावाविर्भावाय स्याद्वादतत्त्वसमर्थने पटिमा यस्य
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