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________________ अष्टसहस्री [ मंगलाचरण का विशेषार्थ हुए प्रवचनमय तीर्थ की सृष्टि की पूर्ति स्वरूप इन 'देवागम-नभोयान" इत्यादि पदों द्वारा 'देवोगमस्तोत्र" नाम के ग्रन्थ की रचना की है। इसके पश्चात् जिनके चरणनख की किरणें सकल तार्किक जनों के चड़ामणि की किरणों से चित्र विचित्र शोभा को प्राप्त हैं, ऐसे भगवान् भट्टाकलङ्कदेव ने इसी देवागम-स्तोत्र को 'अष्टशती' नामक टीका रची है। इसी प्रकार महाभाग तार्किकजनों से मान्य 'वादीसिंह' इस पदवी से अलंकृत श्री विद्यानंदि स्वामी स्याद्वाद से प्रगट सत्यवचनों का प्रवाह है जिसमें, ऐसी अपनी वाणी की चतुरता को प्रगट करते हुए 'आप्त-मीमांसा' को अलंकृत करने की इच्छा करते हए 'श्री वर्द्धमानम्' इत्यादि प्रतिज्ञा श्लोक को कहते हैं। 'मया अलं क्रियते” मेरे द्वारा अलंकृत की जाती है, इस पद से अलंकार का महत्व प्रगट किया है अर्थात् जिस प्रकार सौंदर्यशालिनी कन्या की भी अलंकार आदि से शोभा द्विगणित हो जाती है, उसी प्रकार से यह टीका भी इस स्तोत्र के लिए अलंकार स्वरूप इस स्तोत्र के पदों के अर्थों को अत्यर्थ रूप में स्पष्ट करते हुए श्रोता जनों के मन को हरण करने वाली है।" "मेरे द्वारा क्या अलंकृत की जाती है ?" "कृति"-रचना । वह किस रूप में है ? शास्त्र के प्रारंभ में रचित स्तुति के विषय को प्राप्त जो परम आप्त भगवान हैं, उनकी मोमांसा-परोक्षा की जाती है। निर्देश विशेष्य-विशेषण सम्बन्ध से युक्त होने से स्वामी समंतभद्राचार्य के माहात्म्य को प्रगट करता है अर्थात् स्वामी समंतभद्राचार्य की रचना, अभिवंद्य"-नमस्कार करके-मन वचन काय से वंदना करके, मेरे द्वारा अलंकृत की जाती है। इस नमस्कार पद से आस्तिक्य भावना के अस्तित्व को दिखलाया है। किसको नमस्कार करके ? "श्री वर्द्धमानम्" सब तरफ से वृद्धि को प्राप्त है 'मान'-केवलज्ञान जिनका, ऐसे वर्द्धमान भगवान को। श्री-समवसरण दि लक्षण एवं परम आर्हत्य ar "अस्य" यह निवा माप्तगुणातिशयपरीक्षामुपक्षिप्तवन्तो देवागमाभिधानस्य प्रवचनतीर्थस्य सृष्टिमापूरयाञ्चक्रिरे । तदनु सकलतार्किकचक्रचूड़ामणिमरीचिमेचकितचरणनखकिरणो भगवान् भट्टाकलङ्कदेवस्तदेतस्याष्टशत्याख्येन भाष्येणोन्मेषमकार्षीत् । तदेवं महाभागैस्ताकिकारुपज्ञातां श्रीमता वादीभसिंहेनोपलालितामाप्तमीमांसामलंचिकीर्ष वा स्याद्वादोद्भासिसत्यवाक्यसरां गिरां चातुरीमाविर्भावयन्तः प्रतिज्ञाश्लोकमाहुः "श्रीवर्धमानमित्यादि' अस्यार्थः ।-अलकियते विभूष्यते । केन? मया विद्यानन्दिसूरिणा। अनेनालङ्कारस्य महत्त्वमुद्द्योतितम् । का? कृतिः सन्दर्भः । किरूपा ? शास्त्रावताररचिस्तुतिगोचराप्तमीमांसितम् । विशेष्यविशेषणयोराविष्टलिङ्गत्वादयं निर्देशो यथा। रमणीरत्नमुर्वशीति । कस्य ? अस्य स्वामिसमन्तभद्राचार्यस्य । माहात्म्यमावेदितम् । श्रीवर्द्धमान. समन्तभद्रः सूरिरनिन्द्यवागित्येतत्त्रितयस्यानन्तरोक्तस्यास्येत्यनेन परिग्रहप्राप्तावपि सुरेरेव परिगृहीतिः कृतेरनेनैव प्रत्यासत्तिप्रकर्षयोगात् । किं कृत्वा ? प्रागभिवन्द्य अभितः समन्तान्मनसा वचसा वपुषा च वन्दित्वा । अनेन नमस्कृतावास्तिक्यस्यास्तित्वमाशितम् । कम् ? श्रीवर्द्धमानम् । अव समन्तादृद्धं प्रवृद्धं मानं केवलज्ञानं यस्यासौ तथोक्त: । श्रिया समवसरणादिलक्षणया परमार्हन्त्यलक्ष्म्या लक्षितो वर्द्धमानः श्रीवर्द्धमानः परमजिनेश्वरसमुदयस्तम् । अर्थसमुदयस्यार्थः कथम् ? अव समतादृद्धं परमातिशयप्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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