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अष्टसहस्री
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अष्टसहस्री वंदना
इन्द्रवज्रा छन्द स्याद्वाचितामणिनामधेया। टीका मयेयं क्रियतेऽल्पबुद्ध या ॥ चितामणिः चिंतितवस्तुदाने । सम्यक्त्वशुद्ध यै भवतात् सदा मे ॥१७॥
___ अष्टसहस्री वंदना उमास्वामिकृतं पूत-महत्संस्तवमंगलं । महेश्वरश्रियं दद्यात्, महादेवपदस्थितं ॥१८॥ मूलाधारं स्तुतेराप्त-मीमांसाकृतेरिदं । मूलमष्टसहन याश्च, मंगलं मंगलं क्रियात् ॥१६॥ देवागमस्तवोद्भूता, समंतात् भद्रकारिणी। अकलंकवचःपूता, विद्यानंदं तनोतु मे ॥२०॥ महापूज्या जगन्माता, स्याद्वादामृतवर्षिणी। अनेकांतमयीमूर्तिः सप्तभंगतरंगिणी ॥२१॥ स्वपर-समयज्ञानं, प्रकटीकुरुते सदा। सर्वथैकांतदुर्दातान्, विमदीकुरुते क्षणात् ॥२२॥ जिनशासन माहात्म्य-वर्धने पूर्णचंद्रवत् । मिथ्यामतमहाध्वांत-ध्वंसने सूर्यवत् सदा ॥२३॥
जीयात् कष्टसहस्रर्या साध्या सर्वार्थसिद्धिदा।
पुष्यात्साष्टसहस्री मे, वाञ्छां शतसहस्रिकाम् ॥२४॥ चतुष्कं ।। "स्याद्वादचिंतामणि" नाम की यह टीका मुझ अल्पबुद्धि के द्वारा की जा रही है । यह चिंतित वस्तु को देने में चिंतामणि ही है, यह चिंतामणि टीका सदा मेरे सम्यक्त्व की शुद्धि के लिये होवे । अष्टसहस्री वंदना
उमास्वामी के द्वारा कृत, पवित्र अहंतदेव का स्तवरूप मंगलाचरण महादेव पद में स्थित ऐसी महेश्वर की लक्ष्मी मुझे प्रदान करे ।
भावार्थ-इस श्लोक में श्लेषालंकार है अतः उमा-पार्वती के पति महादेव पक्ष में उमालक्ष्मी-तपो लक्ष्मी के स्वामी आचार्य श्री उमास्वामी के द्वारा रचित "मोक्षमार्गस्य नेतारं.. आदि मंगलाचरण मुझे महादेव को लक्ष्मी-"महांश्चासौ देवश्च महादेवः" के अनुसार महान् देव -- देवों के भी देव श्री अहंतदेव की लक्ष्मी प्रदान करें।
___ आप्तमीमांसा नाम की स्तुति का मूल आधारभूत और अष्टसहस्री का भी मूल ऐसा यह मंगलाचरण सदा मंगल करे । "देवागमस्तव" से उत्पन्न हुई, समंतात्-सब तरफ से भद्र-कल्याण को करने वाली, अकलंकवचन-निर्दोष वचन से पवित्र यह अष्टसहस्री ग्रंथ मुझे विद्यानंद-ज्ञान और आनन्द-सुख को देवे। यहाँ श्री समंतभद्र, श्री अकलंकदेव और श्री विद्यानंद ऐसे तीनों आचार्यों का नाम लेकर स्तवन भी कर दिया गया है। जो महान् पूज्य है, जगत् की माता है, स्याद्वादरूपी अमृत को बरसाने वाली है, अनेकांतमयी मूर्ति है, सप्तभंगों के तरंगों से सहित उत्तम नदी है, हमेशा स्वसमय और परसमय के ज्ञान को प्रगट करती है । सर्वथा-एकांत दुराग्रहरूपी मत्त हस्तियों के मद की क्षण में दूर करने वाली है। जिनशासन के महात्म्य को बढ़ाने में पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान है। मिथ्यामतरूपी महाअंधकार को नष्ट करने में सदा सूर्य के समान है। जो हजारों कष्टों से सिद्ध होने योग्य है वह अष्टसहस्रो सदा जयशील होवे, सर्व अर्थ की सिद्धि को देने वाली होवे और मेरी कोटि-कोटि वाञ्छाओं को सफल करे । इस प्रकार हिन्दी टीकाकर्वी द्वारा रचित पीठिका प्रकरण पूर्ण हुआ।
इति पीठिकाबंध:
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