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________________ गुरुवंदना | प्रथम परिच्छेद वर्तमान गुरुपरम्परा – अनुष्टुप् छन्द चारित्रचक्रवर्ती यः, शांतिसिंधुर्गणीश्वरः । धर्मधुर्योजगत्पूज्यस्तस्मै नित्यं नमोऽस्तु मे ॥७॥ जातरूपधरो धीरो, गणी श्रीवीरसागरः, नमस्तस्मै च भक्त्या मे, शिवसागरसूरये ॥८॥ धर्मध्यानरतो नित्यं सूरियों धर्मसागरः । तस्मै नमोऽस्तु मे भक्त्या, जगतां धर्मवृद्धये ॥ ६ ॥ एते परंपराचार्याः, रत्नत्रयविभूषिताः । मया भक्त्या प्रवंद्यन्ते, रत्नत्रयविशुद्धये ॥१०॥ गुरुवंदना श्रीदेशभूषणाचार्य:, क्षुल्लिकाव्रतदायकः । भवकूपात् समुद्धर्त्ता, तस्मै भक्त्या नमोऽस्तु मे ॥ ११ ॥ श्री वीरसागराचार्यो, नमस्तस्मै च येन मे, महाव्रतादिकं दत्वा ज्ञानमत्यायिका कृता ॥१२॥ न्यायसिद्धांतसज्ज्ञानं लब्धं यस्याः प्रसादतः । देवशास्त्रगुरुणां सा, भक्तिः स्यान्मे स्थिरासदा ॥१३॥ टीकायाः उपक्रमः क्वायं ग्रन्थः क्व मे बुद्धिस्तथापि श्रुतभक्तितः । अहो ! ह्यष्टसहस्त्रीयं भाषयानूद्यते मया ॥ १४॥ पंचमहागुरून् चित्ते, धृत्वा लिख्यतेऽधुना । सतां चेतो हरेन्नित्यं त्वत्प्रसादेन मे कृतिः ॥ १५ ॥ सरस्वति ! नमस्तुभ्यं, प्रसीद वरदा भव । त्वत्प्रसादेन मे भूयात् वाक्शुद्धिः सर्वसिद्धिदाः ॥ १६॥ [३ टीकाकर्त्री की गुरुपरंपरा चारित्र के चक्रवर्ती-प्रधान, धर्म के धुर्य, जगत् में पूज्य, श्री शांतिसागर जी महान् आचार्य हुए हैं, उनको मेरा नमोऽस्तु होवे । यथाजात मुद्रा के धारी महाधीर वीर श्री वीरसागर आचार्य को मेरा भक्तिपूर्वक नमस्कार होवे और श्री शिवसागर आचार्य को भी मेरा नमस्कार होवे । नित्य ही धर्मध्यान में लीन जो श्री धर्मसागर आचार्य हैं भक्तिपूर्वक उनको मेरा नमस्कार होवे वे जगत् में सदा धर्म की वृद्धि करते रहें । रत्नत्रय से विभूषित इन परंपरा के आचार्यों को अपने रत्नत्रय की विशुद्धि के लिये गुरुभक्तिपूर्वक मेरा नमस्कार होवे । गुरु वंदना क्षुल्लिका दीक्षा के देने वाले श्री देशभूषण आचार्य मुझे भवकूप से निकालने वाले हैं। भक्तिपूर्वक उनको मेरा नमस्कार होवे । श्री वीरसागर आचार्य को मेरा नमस्कार होवे जिन्होंने मुझे महाव्रत आदि भूलगुणों को देकर आर्यिका 'ज्ञानमती' बना दिया है। जिसके प्रसाद से मैंने न्याय और सिद्धांत ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त किया है, वह देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति मुझ में सदा स्थिर बनी रहे । टीका प्रारम्भ करने का उपक्रम - Jain Education International कहाँ यह अष्टसहस्र नाम का दार्शनिक महाग्रंथ ? और कहाँ मेरी बुद्धि ? फिर भी आश्चर्य है कि मेरे द्वारा गुरुभक्ति से इस अष्टसहस्त्री ग्रंथ का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया जा रहा है । पंचमहागुरुओं को अपने हृदय में धारण कर मेरे द्वारा इस समय यह टीका लिखी जा रही है । उन पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से यह मेरी रचना नित्य ही सज्जन पुरुषों के चित्त को हरण करने वाली होवे । हे सरस्वति मातः ! आपको मेरा नमस्कार हो आप मुझे वर देने वाली होवें । आपके प्रसाद से मुझे सर्वसिद्धि को देने वाली वचनशुद्धि प्राप्त होवे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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